श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
त्रयोदश अध्याय
सर्वत:पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
उत्तर- इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि वह परब्रह्म परमात्मा सब ओर हाथ वाला है। उसे कोई भी वस्तु कहीं से भी समर्पण की जाय, वह वहीं से उसे ग्रहण करने में समर्थ है। इसी तरह वह सब जगह पैर वाला है। कोई भी भक्त कहीं से उसके चरणों में प्रणामादि करते हैं, वह वहीं उसे स्वीकार कर लेता है; क्योंकि वह सर्वशक्तिमान् होने के कारण सभी जगह सब इन्द्रियों का काम कर सकता है, उसकी हस्तेन्द्रिय का काम करने वाली ग्रहण-शक्ति और पादेन्द्रिय का काम करने वाली चलन-शक्ति सर्वत्र व्याप्त है। प्रश्न- सब ओर नेत्र, सिर और मुख वाला है- इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इस कथन से भी उस ज्ञेय तत्त्व की सर्वव्यापकता का ही भाव दिखलाया गया है। अभिप्राय यह है कि वह सब जगह आँख वाला है। ऐसा कोई भी स्थान नहीं है, जहाँ वह न देखता हो; इसीलिये उससे कुछ भी छिपा नहीं है। वह सब जगह सिर वाला है। जहाँ कहीं भी भक्त लोग उसका सत्कार करने के उद्देश्य से पुष्प आदि उसके मस्तक पर चढ़ाते हैं, वे सब ठीक उस पर चढ़ते हैं; कोई भी स्थान ऐसा नहीं है, जहाँ भगवान् का मस्तक न हो। वह सब जगह मुख वाला है। उसके भक्त जहाँ भी उसको खाने की वस्तु समर्पण करते हैं, वह वहीं उस वस्तु को स्वीकार कर सकता है; ऐसी कोई भी जगह नहीं है, जहाँ उसका मुख न हो अर्थात् वह ज्ञेय स्वरूप परमात्मा सबका साक्षी, सब कुछ देखने वाला तथा सबकी पूजा और भोग स्वीकार करने की शक्ति वाला है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यह श्लोक श्वेताश्वतरोपनिषद् में अक्षरशः आया है (3। 16)
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