श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वादश अध्याय
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्परा: ।
उत्तर- ‘तु’ पद यहाँ निर्गुण-उपासकों की अपेक्षा सगुण-उपासकों की विलक्षणता दिखलाने के लिये है। प्रश्न- भगवान् के परायण होना क्या है? उत्तर- भगवान् पर निर्भर होकर भाँति-भाँति के दुःखों की प्राप्ति होने पर भी भक्त प्रह्लाद की भाँति निर्भय और निर्विकार रहना; उन दुःखों को भगवान् का भेजा हुआ पुरस्कार समझकर सुखरूप ही समझना तथा भगवान् को ही परम प्रेमी, परमगति, परम सुहृद् और सब प्रकार से शरण लेने योग्य समझकर अपने-आपको भगवान् के समर्पण कर देना- यही भगवान् के परायण होना है। प्रश्न- सम्पूर्ण कर्मों को भगवान् के समर्पण करना क्या है? उत्तर- कर्मों के करने में अपने को पराधीन समझकर भगवान् की आज्ञा और संकेत के अनुसार कठपुतली की भाँति समस्त कर्म करते रहना; उन कर्मों में न तो ममता और आसक्ति रखना और न उनके फल से किसी प्रकार का सम्बन्ध रखना; शास्त्रानुकूल प्रत्येक क्रिया में ऐसा ही भाव रखना कि मैं तो केवल निमित्तमात्र हूँ, मेरी कुछ भी करने की शक्ति नहीं है, भगवान् ही अपने इच्छानुसार मुझसे समस्त कर्म करवा रहे हैं- यही समस्त कर्मों का भगवान् के समर्पण करना है। प्रश्न- अनन्य भक्तियोग क्या है? और उसके द्वारा भगवान् का चिन्तन करते हुए उनकी उपासना करना क्या है? उत्तर- एक परमेश्वर के सिवा मेरा कोई नहीं है, वे ही मेरे सर्वस्व हैं- ऐसा समझकर जो भगवान् में स्वार्थरहित तथा अत्यन्त श्रद्धा से युक्त अनन्य प्रेम करना है- जिस प्रेम में स्वार्थ, अभिमान और व्यभिचार का जरा भी दोष नहीं है; जो सर्वथा पूर्ण और अटल है; जिसका किंचित् अंश भी भगवान् से भिन्न वस्तु में नहीं है और जिसके कारण क्षणमात्र की भी भगवान् की विस्मृति असह्य हो जाती है- उस अनन्य प्रेम को ‘अनन्य भक्तियोग’ कहते हैं। और ऐसे भक्तियोग द्वारा निरन्तर भगवान् का चिन्तन करते हुए, जो उनके गुण, प्रभाव और लीलाओं का श्रवण, कीर्तन, उनके नामों का उच्चारण और जप आदि करना है- यही अनन्य भक्तियोग के द्वारा भगवान् का चिन्तन करते हुए उनकी उपासना करना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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