श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वादश अध्याय
श्रीभगवानुवाच
उत्तर- गोपियों की भाँति[1] समस्त कर्म करते समय परम प्रेमास्पद, सर्वशक्तिमान्, सर्वान्तर्यामी, सम्पूर्ण गुणों के समुद्र भगवान् में मन को तन्मय करके उनके गुण, प्रभाव और स्वरूप का सदा-सर्वदा प्रेमपूर्वक चिन्तन करते रहना ही मन को एकाग्र करके निरन्तर उनके ध्यान में स्थित रहते हुए उनकी उपासना करना है। प्रश्न- अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा का क्या स्वरूप है? और उससे युक्त होना क्या है? उत्तर- भगवान् की सत्ता में, उनके अवतारों में, वचनों में, उनकी शक्ति में, उनके गुण, प्रभाव, लीला और ऐश्वर्य आदि में अत्यन्त सम्मानपूर्वक जो प्रत्यक्ष से भी बढ़कर विश्वास है- वही अतिशय श्रद्धा है और भक्त प्रह्लाद की भाँति सब प्रकार से भगवान् पर निर्भर हो जाना ही उपर्युक्त श्रद्धा से युक्त होना है। प्रश्न- ‘वे मुझे उत्तम योगवेत्ता मान्य है’ इसका क्या भाव है? उत्तर- इस वाक्य से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि दोनों प्रकार के उपासकों में जो मुझ सगुण परमेश्वर के उपासक हैं, उन्हीं को मैं उत्तम योगवेत्ता मानता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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या दोहनेऽवहनने मथलोपलेपप्रेंखेंख्ङनार्भरुदितोक्षणमार्जनादौ।
गायन्ति चैनमनुरक्तधियोऽश्रुकण्ठ्यो धन्या व्रजस्त्रिय उरुक्रमचित्तयानाः।। (श्रीमद्भागवत 10। 44। 15)‘जो गौओं का दूध दुहते समय, धान आदि कूटते समय, दही बिलोते समय, आँगन लीपते समय, बालकों को पालने में झुलाते समय, रोते हुए बच्चों को लोरी देते समय, घरों में जल छिड़कते समय और झाड़ू देते आदि कर्मों को करते समय, प्रेमपूर्ण चित्त से आँखों में आँसू भरकर गद्गद वाणी से श्रीकृष्ण का गान किया करती हैं- इस प्रकार सदा श्रीकृष्ण में ही चित्त लगाये रखने वाली वे व्रजवासिनी गोपरमणियाँ धन्य हैं।
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