एकादश अध्याय
सम्बन्ध- अनन्य भक्ति के द्वारा भगवान् को देखना, जानना और एकीभाव से प्राप्त करना सुलभ बतलाया जाने के कारण अनन्यभक्ति का स्वरूप जानने की आकांक्षा होने पर अब अनन्य भक्ति के लक्षणों का वर्णन किया जाता है-
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्त: संग्ङवर्जित: ।
निर्वैर: सर्वभूतेषु य: स मामेति पाण्डव ।। 55 ।।
हे अर्जुन! जो पुरुष केवल मेरे लिये ही सम्पूर्ण कर्तव्यों को करने वाला है, मेरे परायण है, मेरा भक्त है, आसक्ति रहित है और सम्पूर्ण भूतप्राणियों में वैरभाव से रहित है- वह अनन्य भक्ति युक्त पुरुष मुझको ही प्राप्त होता है।। 55 ।।
प्रश्न- ‘मत्कर्मकृत्’ का क्या भाव है?
उत्तर- जो मनुष्य स्वार्थ, ममता और आसक्ति को छोड़कर, सब कुछ भगवान् का समझकर, अपने को निमित्तमात्र मानता हुआ यज्ञ, दान, तप और खान-पान, व्यवहार आदि समस्त शस्त्रविहित कर्तव्यकर्मों को निष्काम भाव से भगवान् की ही प्रसन्नता के लिये भगवान् की आज्ञानुसार करता है- वह ‘मत्कर्मकृत्’ अर्थात् भगवान् के लिये भगवान् के कर्मों को करने वाला है।
प्रश्न- ‘मत्परमः’ का क्या भाव है?
उत्तर- जो भगवान् को ही परम आश्रय, परमगति, एकमात्र शरण लेने योग्य, सर्वोत्तम, सर्वाधार, सर्वशक्तिमान, सबके सुहृद्, परम आत्मीय और अपने सर्वस्व समझता है तथा उनके किये हुए प्रत्येक विधान में सदा सुप्रसन्न रहता है- वह ‘मत्परमः’ अर्थात् भगवान् के परायण है।
प्रश्न- ‘मद्भक्तः’ का क्या भाव है?
उत्तर- भगवान् में अनन्यप्रेम हो जाने के कारण जो भगवान् में ही तन्मय होकर नित्य-निरन्तर भगवान् के नाम, रूप, गुण, प्रभाव और लीला आदि का श्रवण कीर्तन और मनन आदि करता रहता है; इनके बिना जिसे क्षण भर भी चैन नहीं पड़ता; और जो भगवान् के दर्शन के लिये अत्यन्त उत्कण्ठा के साथ निरन्तर लालायित रहता है- वह ‘मद्भक्तः’ अर्थात् भगवान् का भक्त है।
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