द्वितीय अध्याय
सम्बन्ध- पूर्व श्लोक में यह कहा कि आत्मा किसी के द्वारा नहीं मारा जाता, इस पर यह जिज्ञासा होती है कि आत्मा किसी के द्वारा नहीं मारा जाता, इसमें क्या कारण है? इसके उत्तर में भगवान् आत्मा में सब प्रकार के विकारों का अभाव बतलाते हुए उसके स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं-
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूय: ।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणोन हन्यते हन्यमाने शरीरे।। 20 ।।
यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है; क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता ।। 20 ।।
प्रश्न- ‘न जायते म्रियते’- इन दोनों क्रिया पदों का क्या भाव है?
उत्तर- इनसे भगवान् ने आत्मा में उत्पत्ति और विनाशरूप आदि-अन्त के दो विकारों का अभाव बतलाकर उत्पत्ति आदि छहों विकारों का अभाव सिद्ध किया है और इसके बाद प्रत्येक विकार का अभाव दिखलाने के लिये अलग-अलग शब्दों का भी प्रयोग किया है।
प्रश्न- उत्पत्ति आदि छः विकार कौन-से हैं और इस श्लोक में किन-किन शब्दों द्वारा आत्मा में उनका अभाव सिद्ध किया है?
उत्तर- 1- उत्पत्ति (जन्मना), 2- अस्तित्व (उत्पन्न होकर सत्ता वाला होना), 3- वृद्धि (बढ़ना), 4- विपरिणाम (रूपान्तर को प्राप्त होना), 5- अपक्षय (क्षय होना या घटना) और 6-विनाश (मर जाना)- ये छः विकार हैं। इनमें से आत्मा को ‘अजः’ (अजन्मा) कहकर उसमें ‘उत्पत्ति’ रूप विकार का अभाव बतलाया है। ‘अयं भूत्वा भूयः न भविता’ अर्थात् यह जन्म लेकर फिर सत्ता वाला नहीं होता, बल्कि स्वभाव से ही सत् है - यह कहकर ‘अस्तित्व’ रूप विकार का, ‘पुराणः’ (चिरकालीन और सदा एकरस रहने वाला) कहकर ‘वृद्धि’ रूप विकार का, ‘शाश्वतः’ (सदा एकरूप में स्थित) कहकर विपरिणाम का, ‘नित्यः’ (अखण्ड सत्ता वाला) कहकर ‘क्षय’ का और ‘शरीरे हन्यमाने न हन्यते’ (शरीर के नाश से इसका नाश नहीं होता)- यह कहकर ‘विनाश’ का अभाव दिखलाया है।
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