श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
एकादश अध्याय
उत्तर- अर्जुन प्रेम या प्रमादवश जिन अपराधों का अपने द्वारा होना मानते हैं, यहाँ इन पदों का प्रयोग करके वे उन्हीं का स्पष्टीकरण कर रहे हैं। वे कहते हैं कि ‘प्रभो! कहाँ आप और कहाँ मैं! मैं इतना मूढ़मति हो गया कि आप परम पूजनीय परमेश्वर को मैं अपना मित्र ही मानता रहा और किसी भी आदरसूचक विशेषण का प्रयोग न करके सदा बिना सोचे-समझे ‘कृष्ण’, ‘यादव’ और ‘सखे’ आदि कहकर आपको तिरस्कारपूर्वक पुकारता रहा। मेरे इन अपराधों को आप क्षमा कीजिये।’ प्रश्न- ‘अच्युत’ सम्बोधन का क्या भाव है? उत्तर- अपने महत्त्व और स्वरूप से जिसका कभी पतन न हो, उसे ‘अच्युत’ कहते हैं। यहाँ भगवान् को ‘अच्युत’ नाम से सम्बोधित करके अर्जुन यह भाव दिखला रहे हैं कि मैंने अपने व्यवहार-बर्ताव द्वारा आपका जो अपमान किया है, अवश्य ही वह मेरा बड़ा अपराध है; किंतु भगवन्! मेरे ऐसे व्यवहारों से वस्तुतः आपकी कोई हानि नहीं हो सकती। संसार में ऐसी कोई भी क्रिया नहीं हो सकती, जो आपको अपनी महिमा से जरा भी डिगा सके। किसी की सामर्थ्य नहीं, जो आपका कोई अपमान कर सके। क्योंकि आप सदा ही अच्युत हैं। प्रश्न- ‘यत्’ और ‘च’ के प्रयोग का क्या भाव है? उत्तर- पिछले श्लोक में अर्जुन ने जिन अपराधों का स्पष्टीकरण किया है, इस श्लोक में वे उनसे भिन्न अपने व्यवहार द्वारा होने वाले दूसरे अपराधों का वर्णन कर रहे हैं- यह भाव दिखलाने के लिये पुनः ‘यत्’ का और पिछले श्लोक में वर्णित अपराधों के साथ इस श्लोक में बतलाये हुए समस्त अपराधों का समाहार करने के लिये ‘च’ का प्रयोग किया गया है। प्रश्न- ‘अवहासार्थम्’ का क्या भाव है? उत्तर- प्रेम, प्रमाद और विनोद- इन तीन कारणों से मनुष्य व्यवहार में किसी के मानापमान का खयाल नहीं रखता, प्रेम में नियम नहीं रहता, प्रमाद में भूल होती है और विनोद में वाणी की यथार्थता का सुरक्षित रहना कठिन हो जाता है। किसी सम्मान्य पुरुष के अपमान में ये तीनों कारण मिलकर भी हेतु हो सकते हैं और पृथक्-पृथक् भी। इनमें से ‘प्रेम’ और ‘प्रमाद’ इन कारणों के विषय में पिछले श्लोक में अर्जुन कह चुके हैं। यहाँ ‘अवहसार्थम्’ पद से तीसरे कारण ‘हँसी-मजाक’ का लक्ष्य करा रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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