श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
एकादश अध्याय
कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्माणोऽप्यादिकर्त्रे ।
उत्तर- इनका प्रयोग करके अर्जुन नमस्कार आदि क्रियाओं का औचित्य सिद्ध कर रहे हैं। अभिप्राय यह है कि आप समस्त चराचर प्राणियों के महान् आत्मा हैं, अन्तरहित हैं- आपके रूप, गुण और प्रभाव आदि की सीमा नहीं है; आप देवताओं के भी स्वामी हैं और समस्त जगत् के एकमात्र परमाधार हैं। यह सारा जगत् आपमें ही स्थित है तथा आप इसमें व्याप्त हैं। अतएव इन सबका आपको नमस्कार आदि करना सब प्रकार से उचित ही है। प्रश्न- ‘गरीयसे’ और ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे’ का क्या भाव है? उत्तर- इन दोनों पदों का प्रयोग भी नमस्कार आदि का औचित्य सिद्ध करने के उद्देश्य से ही किया गया है। अभिप्राय यह है कि आप सबसे बड़े और श्रेष्ठतम हैं; जगत् की बात ही क्या है, समस्त जगत् की रचना करने वाले ब्रह्मा के भी आप रचयिता आप ही हैं। अतएव सबके परम पूज्य और परम श्रेष्ठ होने के कारण इन सबका आपको नमस्कारादि करना उचित ही है। प्रश्न- जो ‘सत्’, ‘असत्’ और उससे परे ‘अक्षर’ है- वह आप ही हैं, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- जिसका कभी अभाव नहीं होता, उस अविनाशी आत्मा को ‘सत्’ और नाशवान् अनित्य वस्तुमात्र को ‘असत्’ कहते हैं; इन्हीं को सातवें अध्याय में परा और अपरा प्रकृति तथा पंद्रहवें अध्याय में अक्षर और क्षर पुरुष कहा गया है। इनसे परे परम अक्षर सच्चिदानन्दघन परमात्मा तत्त्व है। अर्जुन अपने नमस्कारादि के औचित्य को सिद्ध करते हुए कह रहे हैं कि यह सब आपका ही स्वरूप है। अतएव आपको नमस्कार आदि करना सब प्रकार से उचित है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज