श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
एकादश अध्याय
द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथान्यानपि योधवीरान् ।
उत्तर- द्रोणाचार्य धनुर्वेद तथा अन्यान्य शस्त्रास्त्रप्रयोग की विद्या में अत्यन्त पारंगत और युद्धकला में परम निपुण थे। यह बात प्रसिद्ध थी कि जब तक उनके हाथ में शस्त्र रहेगा, तब तक उन्हें कोई भी मार नहीं सकेगा। इस कारण अर्जुन उन्हें अजेय समझते थे; और साथ ही गुरु होने के कारण अर्जुन उनको मारना पाप भी मानते थे भीष्मपितामह की शूरता जगत्प्रसिद्ध थी। परशुराम सरीखे अजेय वीर को भी उन्होंने छका दिया था। साथ ही पिता शान्तनु का उन्हें यह वरदान था कि उनकी बिना इच्छा के मृत्यु भी उन्हें नहीं मार सकेगी। इन सब कारणों से अर्जुन की यह धारणा थी कि पितामह भीष्म पर विजय प्राप्त करना सहज कार्य नहीं है, इसी के साथ-साथ वे पितामह का अपने हाथों वध करना पाप भी समझते थे। उन्होंने कई बार कहा भी है, मैं इन्हें नहीं मारना चाहता। जयद्रथ[1] स्वयं बड़े वीर थे और भगवान् शंकर के भक्त होने के कारण उनसे दुर्लभ वरदान पाकर अत्यन्त दुर्जय हो गये थे। फिर दुर्योधन की बहिन दुःशला के स्वामी होने से पाण्डवों के भी बहनाई लगते थे। स्वाभाविक ही सौजन्य और आत्मीयता के कारण अर्जुन उन्हें भी मारने में हिचकते थे। कर्ण को भी अर्जुन किसी प्रकार भी अपने से कम वीर नहीं मानते थे। संसारभर में प्रसिद्ध था कि अर्जुन के योग्य प्रतिद्वन्द्वी कर्ण ही हैं। ये स्वयं बड़े ही वीर थे और परशुराम जी के द्वारा दुर्लभ शस्त्रविद्या का इन्होंने अध्ययन किया था। इसीलिये इन चारों के पृथक्-पृथक नाम लेकर और ‘अन्यान्’ विशेषण के साथ ‘योधवीरान्’ पद से इनके अतिरिक्त भगदत्त, भूरिश्रवा और शल्य प्रभति जिन-जिन योद्धाओं को अर्जुन बहुत बड़े वीर समझते थे और जिन पर विजय प्राप्त करना आसान नहीं समझते थे, उन सबका लक्ष्य कराते हुए उन सबको अपने द्वारा मारे हुए बतलाकर और उन्हें मारने के लिये आज्ञा देकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि तुमको किसी पर भी विजय प्राप्त करने में किसी प्रकार का भी सन्देह नहीं करना चाहिये। ये सभी मेरे द्वारा मरे हुए हैं। साथ ही इस बात का भी लक्ष्य करा दिया है कि तुम जो इन गुरुजनों को मारने में पाप की आशंका करते थे, वह भी ठीक नहीं है। क्योंकि क्षत्रिय धर्मानुसार इन्हें मारने के जो तुम निमित्त बनोगे, इसमें तुम्हें कोई भी पाप नहीं होगा वर धर्म का ही पालन होगा। अतएव उठो और इन पर विजय प्राप्त करो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जयद्रथ सिन्धुदेश के राजा वृद्धक्षत्र के पुत्र थे। इनका धृतराष्ट्र की एकमात्र कन्या दुःशला के साथ विवाह हुआ था। पाण्डवों के वनवास के समय एक बार उनकी अनुपस्थिति में ये द्रौपदी को हर ले गये थे। भीमसेन आदि ने लौटकर जब यह बात सुनी तब उन लोगों ने इनके पीछे जाकर द्रौपदी को छुड़ाया और इन्हें पकड़ लिया था। फिर युधिष्ठिर के अनुरोध करने पर सिर मूँड़कर छोड़ दिया था। कुरुक्षेत्र के युद्ध में जब अर्जुन संसप्तकों के साथ युद्ध करने में लगे थे, इन्होंने चक्रव्यूह के ये द्वार पर युधिष्ठिर, भीम, नकुल, सहदेव-चारों को शिवजी के वरदान से रोक लिया, जिससे वे अभिमन्यु की सहायता के लिये अंदर नहीं जा सके और कई महारथियों से घेरे जाकर अभिमन्यु मारे गये। इस पर अर्जुन ने यह प्रतिज्ञा की कि कल सूर्यास्त होने से पहले-पहल जयद्रथ को न मार दूँगा तो मैं अग्नि में प्रवेश करके प्राण त्याग कर दूँगा। कौरवपक्षीय वीरों ने जयद्रथ को बचाने की बहुत चेष्टा की; परंतु भगवान् श्रीकृष्ण के प्रभाव से उनकी सारी चेष्टाएँ व्यर्थ हो गयीं, और अर्जुन ने सूर्यास्त से पहले ही उनका सिर धड़ से अलग कर दिया। जयद्रथ को एक वरदान था कि जो तुम्हारा कटा सिर जमीन पर गिरावेगा, उसके सिर के उसी क्षण सौ टुकड़े हो जायँगे। इसीलिये भक्तवत्सल भगवान् की आज्ञा पाकर अर्जुन ने जयद्रथ के कटे सिर को ऊपर-ही-ऊपर बाणों के द्वारा ले जाकर समन्तपंचक तीर्थ पर बैठे हुए जयद्रथ के पिता वृद्धक्षत्र की गोद में डाल दिया और उनके द्वारा जमीन पर गिरते ही उनके सिर के सौ टुकड़े हो गये। (महाभारत, द्रोणपर्व)
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