श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
एकादश अध्याय
नभ:स्पृशं दीप्तमनेकवर्णं व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् ।
उत्तर- भगवान् को विष्णु नाम से सम्बोधित करके अर्जुन यह दिखलाते हैं कि आप साक्षात् विष्णु ही पृथ्वी का भार उतारने के लिये कृष्णरूप में प्रकट हुए हैं। अतः आप मेरी व्याकुलता को दूर करने के लिये इस विश्वरूप का संवरण करके विष्णुरूप से प्रकट हो जाइये। प्रश्न- बीसवें श्लोक में स्वर्ग और पृथ्वी के बीच का आकाश भगवान् से व्याप्त बतलाकर उसकी सीमारहित लंबाई का वर्णन कर ही चुके थे, फिर यहाँ ‘नभःस्पृशम्’ विशेषण देने की आवश्यकता क्यों हुई? उत्तर- बीसवें श्लोक में विराट् रूप की लंबाई-चौड़ाई का वर्णन करके तीनों लोकों के व्याकुल होने की बात कही गयी है; और इस श्लोक में उसकी असीम लंबाई को देखकर अर्जुन ने अपनी व्याकुलता का तथा धैर्य और शान्ति के नाश का वर्णन किया है; इस कारण यहाँ ‘नभःस्पृशम्’ विशेषण का प्रयोग किया गया है। प्रश्न- सत्रहवें श्लोक में ‘दीप्तिमन्तम्’ विशेषण दिया ही गया था, फिर यहाँ ‘दीप्तम्’ विशेषण देने की क्या आवश्यकता थी? उत्तर- वहाँ केवल भगवान् के रूप को देखने की ही बात कही गयी थी और यहाँ उसे देखकर धैर्य और शान्ति के भंग होने की बात कही गयी है। इसीलिये उस रूप का पुनः वर्णन किय गया है। प्रश्न- अर्जुन ने अपने व्याकुल होने की बात भी तेईसवें श्लोक में कह दी थी, फिर इस श्लोक में ‘प्रव्यथितान्तरात्मा’ विशेषण देकर क्या भाव दिखलाया है? उत्तर- वहाँ केवल व्याकुल होने की बात ही कही थी। यहाँ अपनी स्थिति को भलीभाँति प्रकट करने के लिये वे पुनः कहते हैं कि मैं केवल व्याकुल ही नही हो रहा हूँ, आपके फैलाये हुए मुखों और प्रज्वलित नेत्रों से युक्त इस विकराल रूप को देखकर मेरी धीरता और शान्ति भी जाती रही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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