श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
दशम अध्याय
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् ।
उत्तर- सामवेद के ‘रथन्तर’ आदि सामों में बृहत् साम[2] (‘बृहत्’ नामक साम) प्रधान होने के कारण सबमें श्रेष्ठ हैं, इसी कारण यहाँ ‘बृहत्साम्’ को अपना स्वरूप बतलाया है। प्रश्न- छन्दों में गायत्री छन्द को अपना स्वरूप बतलाने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- वेदों की जितनी भी छन्दोबद्ध ऋचाएँ हैं, उन सबमें गायत्री की ही प्रधानता है। श्रुति, स्मृति, इतिहास और पुराण आदि शास्त्रों में जगह-जगह गायत्री की महिमा भरी है।[3] गायत्री की इस श्रेष्ठता के कारण ही भगवान् ने उसको अपना स्वरूप बतलाया है। प्रश्न- महीनों में मार्गशीर्ष को अपना स्वरूप बतलाने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- महाभारतकाल में महीनों की गणना मार्गशीर्ष से ही आरम्भ होती थी।[4] अतः यह सब मासौ में प्रथम मास है, तथा इस मास में किये हुए व्रत-उपवासों का शास्त्रों में महान् फल बतलाया गया है।[5] नये अन्न की इष्टि (यज्ञ)- का भी इसी महीने में विधान है। वाल्मीकीय रामायण में इसे संवत्सर का भूषण बतलाया गया है। इस प्रकार अन्यान्य मासों की अपेक्षा इसमें कई विशेषताएँ हैं, इसलिये भगवान् ने इसको अपना स्वरूप बतलाया है। प्रश्न- ऋतुओं में वसन्त-ऋतु को अपना स्वरूप बतलाने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- वसन्त सब ऋतुओं में श्रेष्ठ और सबका राजा है। इसमें बिना ही जल के सब वनस्पतियाँ हरी-भरी और नवीन पत्रों तथा पुष्पों से समन्वित हो जाती हैं। इसमें न अधिक गरमी रहती है और न सरदी। इस ऋतु में प्रायः सभी प्राणियों को आनन्द होता है। इसीलिये भगवान् ने इसको अपना स्वरूप बतलाया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 10। 22
- ↑ सामवेद में ‘बृहत्साम’ एक गीत-विशेष है। इसके द्वारा परमेश्वर की इन्द्ररूप में स्तुति की गयी है। ‘अतिरात्र’ यागमे यही पृष्ठस्तोत्र है।
- ↑ गायत्री की महिमा का निम्नांकित वचनों द्वारा किंचित् दिग्दर्शन कराया जाता है-
‘गायत्री छन्दसां मातेति।’ (नारायणोपनिषद् 34)
‘गायत्री समस्त वेदों की माता है।’
सर्ववेदसारभूता गायत्र्यास्तु समर्चना।
ब्रह्मादयोऽपि सन्ध्यायां तां ध्यायन्ति जपन्ति च।। (देवी भागवत 11। 16। 15)‘गायत्री की उपासना समस्त वेदों की सारभूत है, ब्रह्मा आदि देवता भी सन्ध्याकाल में गायत्री का ध्यान और जप करते हैं।’
गायत्र्युपासना नित्या सर्ववेदैः समीरिता।
यया विना त्वधःपातो ब्राह्मणस्यास्ति सर्वथा।। (देवीभागवत 12। 8। 89)‘गायत्री की उपासना को समस्त वेदों ने नित्य (अनिवार्य) कहा है। इस गायत्री की उपासना के बिना ब्राह्मण का तो सब तरह अधःपतन है ही।’
अभीष्टं लोकमाप्नोति प्राप्नुयात् काममीप्सितम्।
गायत्री वेदजननी गायत्री पापनाशिनी।।
गायत्र्याः परमं नास्ति दिवि चेह च पावनम्।
हस्तत्राणप्रदा देवी पततां नरकार्णवे।। (शंखस्मृति 12। 24-25)‘(गायत्री की उपासना करने वाला द्विज) अपने अभीष्ट लोक को पा जाता है, मनोवांछित भोग प्राप्त कर लेता है। गायत्री समस्त वेदों की जननी और सम्पूर्ण पापों को नष्ट करने वाली हैं। स्वर्गलोक में तथा पृथ्वी पर गायत्री से बढ़कर पवित्र करने वाली दूसरी कोई वस्तु नहीं है। गायत्री देवी नरक समुद्र में गिरने वालों को हाथ का सहारा देकर बचा लेने वाली है।’
गायत्र्यास्तु परं नास्ति शोधनं पापकर्मणाम्।
महाव्याहृतिसंयुक्तां प्रणवेन च संजपेत्।। (संवर्तस्मृति 218)‘गायत्री से बढ़कर पापकर्मों का शोधक (प्रायश्चित्त) दूसरा कुछ भी नहीं है। प्रणम (ऊँकार) सहित तीन महाव्याहृतियों से युक्त गायत्री मन्त्र का जप करना चाहिये।’
नास्ति गङासमं तीर्थं न देवः केशवात्परः।
गायत्र्यास्तु परं जप्यं न भूतं न भविष्यति।। (बृहद्योगियाज्ञवल्क्य 10। 10)‘गंगाजी के समान तीर्थ नहीं है, श्रीविष्णु भगवान् से बढ़कर देवता नहीं है और गायत्री से बढ़कर जपने योग्य मन्त्र हुआ, न होगा।’
- ↑ महा. अनुशासन. 106 और 109
- ↑
शुक्ले मार्गशिरे पक्षे योषिद्भर्तुननुज्ञया।
आरभेत व्रतमिदं सार्वकामिकमादितः।।(श्रीमद्भागवत 6। 19। 2)‘पहले-पहल मार्गशीर्ष के शुक्लपक्ष में स्त्री अपने पति की आज्ञा से सब कामनाओं के देने वाले इस पुंसवन-व्रत का आरम्भ करे।’
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