श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
दशम अध्याय
उत्तर- सबसे पहले होने वाले सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार- इन चारों को लेना चाहिये। ये भी भगवान् के ही स्वरूप हैं और ब्रह्मा जी के तप करने पर स्वेच्छा से प्रकट हुए हैं। ब्रह्मा जी ने स्वयं कहा है- तप्तं तपो विविधलोकसिसृक्ष्या मे ‘मैंने विविध प्रकार के लोकों को उत्पन्न करने की इच्छा से जो सबसे पहले तप किया, उस मेरी अखण्डित तपस्या से ही भगवान् स्वयं सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार- इन चार ‘सन’ नाम वाले रूपों में प्रकट हुए और पूर्वकल्प में प्रलयकाल के समय जो आत्मतत्त्व के ज्ञान का प्रचार इस संसार में नष्ट हो गया था, उसका इन्होंने भलीभाँति उपदेश किया, जिससे उन मुनियों ने अपने हृदय में आत्मतत्त्व साक्षात्कार किया।’ प्रश्न- इसी श्लोक में कहा है- ‘जिनकी सब लोकों में यह प्रजा है’, परंतु ‘चत्वारः पूर्वे’ का अर्थ सनकादि महर्षि मान लेने से इसमें विरोध आता है; क्योंकि सनकादि की तो कोई प्रजा नहीं है? उत्तर- सनकादि सबको ज्ञान प्रदान करने वाले निवृत्ति धर्म के प्रवर्तक आचार्य हैं। अतएव उनकी शिक्षा ग्रहण करने वाले सभी लोग शिष्य के सम्बन्ध से उनकी प्रजा ही माने जा सकते हैं। अतएव इसमें कोई विरोध नहीं है। प्रश्न- ‘मनवः’ पद किनका वाचक है? उत्तर- ब्रह्मा के एक दिन में चौदह मनु होते हैं, प्रत्येक मनु के अधिकारकाल को ‘मन्वन्तर’ कहते हैं। इकहत्तर चतुर्युगी से कुछ अधिक काल का एक मन्वन्तर होता है। मानवी वर्षगणना के हिसाब से एक मन्वन्तर तीस करोड़ सड़सठ लाख बीस हजार वर्ष से और दिव्य-वर्षगणना के हिसाब से आठ लाख बावन हजार वर्ष से कुछ अधिक काल का होता है।[2][3] इस 2045 वि. तक कलियुग के 5089 वर्ष बीते हैं। कलियुग के आरम्भ में 36,000 वर्ष सन्ध्याकाल का मान होता है। इस हिसाब से अभी कलियुग की सन्ध्या के ही 30,911 सौर वर्ष बीतने बाकी हैं। प्रत्येक मन्वन्तर में धर्म की व्यवस्था और लोक-रक्षण के लिये भिन्न-भिन्न सप्तर्षि होते हैं। एक मन्वतर के बीत जाने पर जब मनु बदल जाते हैं, तब उन्हीं के साथ सप्तर्षि, देवता, इन्द्र और मनुपु़त्र? भी बदल जाते हैं। वर्तमान कल्प के मनुओं के नाम ये हैं- स्वायम्भुव, स्वारोचिषु, उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, वैवस्वत, सावर्णि, दक्षसावर्णि, ब्रह्मसावर्णि, धर्मसावर्णि, रुद्रसावर्णि, देवसाविर्णि और इन्द्रसावर्णि।[4] चौदह मनुओं का एक कल्प बीत जाने पर सब मनु भी बदल जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भागवत 2। 7। 5
- ↑ विष्णुपुराण 1। 3
- ↑ सूर्य सिद्धान्त में मन्वन्तर आदि का जो वर्णन है, उसके अनुसार इस प्रकार समझना चाहिये-
सौरमान से 43,20,000 वर्ष की अर्थवान देवमान से 12,000 वर्ष की एक चतुर्युगी होती है। इसी को महायुग कहते हैं। ऐसे इकहत्तर युगों का एक मन्वन्तर होता है। प्रत्येक मन्वन्तर के अन्त में सत्ययुग के मान की अर्थात् 17,28,000 वर्ष की सन्ध्या होती है। मन्वन्तर बीतने पर जब सन्ध्या होती है, तब सारी पृथ्वी जल में डूब जाती है। प्रत्येक कल्प में (ब्रह्मा के एक दिन में) चौदह मन्वन्तर अपनी-अपनी सन्ध्याओं के मान के सहित होते हैं। इसके सिवा कल्प के आरम्भकाल में भी एक सत्ययुग के मानकाल की सन्ध्या होती है। इस प्रकार एक कल्प के चौदह मनुओं में 71 चतुर्युगी के अतिरिक्त सत्ययुग के मान की 15 सन्ध्याएँ होती हैं। 71 महायुगों के मान से 14 मनुओं में 994 महायुग होते हैं और सत्ययुग के मान की 15 सन्ध्याओं का काल पूरा 6 महायुगों के समान हो जाता है। दोनों योग मिलाने पर पूरे एक हजार महायुग या दिव्ययुग बीत जाते हैं। इस हिसाब से निम्नलिखित अंकों के द्वारा इसको समझिये-सौरमान या मानव वर्ष देवमान या दिव्य वर्ष
एक चतुर्युगी (महायुग या दिव्ययुग) - 43,20,000 - 12,000
इकहत्तर यतुर्युगी - 30,67,20,000 - 8,92,000
कल्प की सन्धि - 17,28,000 - 4,800
मन्वन्तर की चौदह सन्ध्या - 2,41,92,000 - 67,200
सन्धि सहित एक मन्वन्तर - 30,84,48,000 - 8,56,800
चौदह सन्ध्या सहित चौदह मन्वन्तर - 4,31,82,72,000 - 1,19,95,20
कल्प की सन्धि सहित चौदह मन्वन्तर या एक कल्प - 4,32,00,00,000 - 1,20,00,000ब्रह्मा जी का दिन ही कल्प है, इतनी ही बड़ी उनकी रात्रि है। इस अहोरात्र के मान से ब्रह्मा जी की परमायु एक सौ वर्ष है। इसे ‘पर’ कहते हैं। इस समय ब्रह्माजी अपनी आयु का आधा भाग अर्थात् एक परार्द्ध बिताकर दूसरे परार्द्ध में चल रहे हैं। यह उनके 51वें वर्ष का प्रथम दिन या कल्प है। वर्तमान कल्प के आरम्भ से अब तक स्वायम्भुव आदि छः मन्वन्तर अपनी-अपनी सन्घ्याओं सहित बीत चुके हैं, कल्प की सन्ध्यासमेत सात सन्ध्याएँ बीत चुकी हैं। वर्तमान सातवें वैवस्वत मन्वन्तर के 27 चतुर्युग बीत चुके हैं। इस समय अट्ठाईसवें चतुर्युग के कलियुग का सन्ध्याकाल चल रहा है। (सूर्यसिद्धान्त, मध्यमाधिकार, श्लोक 15 से 24 देखिये)
- ↑ श्रीमद्भागवत के आठवें स्कन्ध के पहले, पाँचवें और तेरहवें अध्याय में इनका विस्तार से वर्णन पढ़ना चाहिये। विभिन्न पुराणों में इनके नामभेद मिलते हैं। यहाँ ये नाम श्रीमद्भागवत के अनुसार दिये गये हैं।
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