नवम अध्याय
प्रश्न- ‘आत्मान्’ पद किसका वाचक है और उसे उपर्युक्त प्रकार से भगवान् में युक्त करना क्या है?
उत्तर- मन, बुद्धि और इन्द्रियों के सहित शरीर का वाचक यहाँ ‘आत्मा’ पद है; तथा इन सबको उपर्युक्त प्रकार से भगवान् में लगा देना ही आत्मा को उसमें युक्त करना है।
प्रश्न- भगवान् के परायण होना क्या है?
उत्तर- इस प्रकार सब कुछ भगवान् को समर्पण कर देना और भगवान् को ही परम प्राप्य, परम गति, परम आश्रय और अपना सर्वस्व समझना, भगवान् के परायण होना है।
प्रश्न- ‘एव’ के प्रयोग का क्या अभिप्राय है तथा भगवान् को प्राप्त होना क्या है?
उत्तर- ‘एव’ पद अवधारण के अर्थ में है। अभिप्राय यह है कि उपर्युक्त प्रकार से साधन करके तुम मुझको ही प्राप्त होओगे, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। तथा इसी मनुष्य-शरीर में ही भगवान् का प्रत्यक्ष साक्षात्कार हो जाना, भगवान् को तत्त्व से जानकर उनमें प्रवेश कर जाना अथवा भगवान् के दिव्य लोक में जाना, उनके समीप रहना अथवा उनके-जैसे रूप आदि को प्राप्त कर लेना- ये सभी भगवत्प्राप्ति ही हैं।
ऊँ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे राज विद्याराज गुह्य योगो नाम नवमोऽध्यायः।। 9 ।।
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