श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
नवम अध्याय
उत्तर- वैश्यों की गणना द्विजों में की गयी है। उनको वेद पढ़ने का और यज्ञादि वैदिक कर्मों के करने का शास्त्र में पूर्ण अधिकार दिया गया है। अतः द्विज होने के कारण वैश्यों को ‘पापयोनि’ कहना नहीं बन सकता। इसके अतिरिक्त छान्दोग्योपनिषद् में जहाँ जीवों की कर्मानुरूप गति का वर्णन है, यह स्पष्ट कहा गया है कि- तद्य इह रमणीयचरणा अभ्याशो ह यत्ते रमणीयां योनिमापद्येरन् ब्राह्मणयोनिं वा क्षत्रिययोनिं वा वैश्ययोनिं वाथ य इह कपूयचरणा अभ्याशो ह यत्ते कपूयां योनिमापद्येरन्श्वयोनिं वा सूकरयोनिं वा चाण्डालयोनिं वा।।[1] ‘उन जीवों में जो इस लोक में रमणीय आचरण वाले अर्थात पुण्यात्मा होते हैं, वे शीघ्र ही उत्तमयोनि-ब्राह्मणयोनि, क्षत्रिययोनि अथवा वैश्ययोनि को प्राप्त करते हैं और जो इस संसार में कपूय (अधम) आचरण वाले अर्थात् पापकर्मा होते हैं, वे अधम योनि अर्थात् कुत्ते की, सूकर की या चाण्डाल की योनि को प्राप्त करते हैं।’ इससे यह सिद्ध है कि वैश्यों की गणना ‘पापयोनि’ में नहीं की जा सकती। अब रही स्त्रियों की बात-सो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की स्त्रियों का अपने पतियों के साथ यज्ञादि वैदिक कर्मों में अधिकार माना गया है। इस कारण से उनको भी पापयोनि कहना नहीं बन सकता। सबसे बड़ी अड़चन तो यह पड़ेगी कि भगवान् की भक्ति से चाण्डाल आदि को भी परमगति मिलने की बात, जो कि सर्वशास्त्रसम्मत है और जो भक्ति के महत्त्व को प्रकट करती है'[2] वह कैसे रहेगी, अवएव ‘पापयोनयः’ पद स्त्री, वैश्य और शूद्रों का विशेषण न मानकर शूद्रों की अपेक्षा भी हीन जाति के मनुष्यों का वाचक है- ऐसा मानना ही ठीक प्रतीत होता है। स्त्री, वैश्य और शूद्रों में भी अनेक भक्त हुए हैं, संकेतमात्र बतलाने के लिये यहाँ यज्ञपत्नी, समाधि और संजय की चर्चा की जाती है- वृन्दावन में कुछ ब्राह्मण यज्ञ कर रहे थे। भगवान् श्रीकृष्ण की अनुमति से उनके सखाओं ने जाकर उनसे अन्न माँगा। याज्ञिक ऋषियों ने उनको फटकार कर निकाल दिया। तब वे इनकी पत्नियों के पास गये; वे श्रीकृष्ण का नाम सुनते ही प्रसन्न हो गयीं और भोजन-सामग्री लेकर श्रीकृष्ण के समीप गयीं। एक ब्राह्मण ने अपनी पत्नी को नहीं जाने दिया, जबरदस्ती पकड़कर बंद कर दिया। उसका प्रेम इतना उमड़ा कि वह भगवान् के सुने हुए रूप का ध्यान करती हुई देह छोड़कर सबसे पहले श्रीकृष्ण को प्राप्त हो गयी।[3] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अध्याय 5, खण्ड 10, मं. 7
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किरातहूणान्ध्रपुलिन्दपुल्कसा आभीरकक्ङा यवनाः खसादयः।
येऽन्ये च पापा युदपाश्रयाश्रयाः शुर्द्ध्यन्ति तस्मै प्रभविष्णवे नमः।।(श्रीमद्भागवत 2। 4। 18)‘जिनके आश्रित भक्तों का आश्रय लेकर किरात, हूण, आन्ध्र, पुलिन्द, पुल्कस, आभीर, ककं, यवन और खस आदि अधम जाति के लोग तथा इनके सिवा और भी बड़े-से बड़े पापी मनुष्य शुद्ध हो जाते हैं, उन जगत्प्रभु भगवान् विष्णु को नमस्कार है।'
व्याधस्याचरणं ध्रुवस्य च वयो विद्या गजेन्द्रस्य का
का जातिर्विदुरस्य यादवपतेरुग्रस्य किं पौरुषम।
कुब्जायाः कमनीयरूपमधिकं किं तत्सुदाम्नो धनं
भक्त्या तुष्यति केवलं न च गुणैर्भक्तिप्रियो माधवः।।‘व्याध का कौन-सा (अच्छा) आचरण था? ध्रुव की आयु ही क्या थी? गजेन्द्र के पास कौन-सी विद्या थी? विदुर की कौन-सी उत्तम जाति थी? यादवपति उग्रसेन का कौन-सा पुरुषार्थ? कुब्जा का ऐसा क्या विशेष सुन्दर रूप था? सुदामा के पास कौन-सा धन था? माधव तो केवल भक्ति से ही सन्तुष्ट होते हैं, गुणों से नहीं; क्योंकि उन्हें भक्ति ही प्रिय है।’
- ↑ श्रीमद्भागवत 10। 23
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