श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
नवम अध्याय
हस्तमुत्क्षिप्य यातोऽसि बलात्कृष्ण किमद्भुतम्। ‘हे कृष्ण! तु बलपूर्वक मुझसे हाथ छुड़ाकर जाते हो इसमें क्या आश्चर्य है? मैं तुम्हारी वीरता तो तब समझूँ जब तुम मेरे हृदय से निकलकर जाओ।’ बिल्वमंगल अत्यन्त दुराचारी थे, भक्त बने और पतन का कारण सामने आने पर भी बच गये तथा अन्त में भगवान् को प्राप्त करके कृतार्थ हो गये। वृन्दावन जाते समय इन्होंने रास्तें मे भावावेश के समय जिन मधुर पद्यों की रचना की है उन्हीं का नाम ‘श्रीकृष्णकर्णामृत’ है। उसके पहले ही श्लोक में चिन्तामणि को गुरु बताकर उनकी वन्दना की है- चिन्तामणिर्जयति सोमगिरिर्गुरुर्मे ‘मेरे मोह को दूर करने वाली चिन्तामणि वेश्या और दीक्षागुरु सोमगिरि की जय हो! तथा सिर पर मयूरपिच्छ धारण करने वाले मेरे शिक्षागुरु भगवान् श्रीकृष्ण की जय हो! जिनके चरणरूपी कल्पवृक्ष के पत्तों के शिखरों में विजयलक्ष्मी लीला से स्वयंवर सुख का लाभ करती है (अर्थात् भक्तों की इच्छा को पूर्ण करने वाले जिनके चरणों में विजयलक्ष्मी सदा अपनी इच्छा से निवास करती है)।’ श्रीशुकदेव जी की भाँति श्रीबिल्वमंगल जी ने भी भगवान् श्रीकृष्ण की मधुमयी लीला का आस्वादन किया था, इसी से इनका एक नाम ‘लीलाशुक’ भी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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