श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
नवम अध्याय
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
उत्तर- ‘अपि’ के द्वारा भगवान् ने अपने समभाव का प्रतिपादन किया है। अभिप्राय यह है कि सदाचारी और साधारण पापियों का मेरा भजन करने से उद्धार हो जाय- इसमें तो कहना ही क्या है, भजन से अतिशय दुराचारी का भी उद्धार हो सकता है। प्रश्न- ‘चेत्’ अव्यय का प्रयोग यहाँ क्यों किया गया? उत्तर- ‘चेत्’ अव्यय ‘यदि’ के अर्थ में है। इसका प्रयोग करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि प्रायः दुराचारी मनुष्यों की विषयों में और पापों में आसक्ति रहने के कारण वे मुझमें प्रेम करके मेरा भजन नहीं करते। तथापि किसी पूर्व शुभ संस्कार की जागृति, भगवद्भावमय वातावरण, शास्त्र के अध्ययन और महात्मा पुरुषों के सत्संग से मेरे गुण, प्रभाव, महत्त्व और रहस्य का श्रवण करने से यदि कदाचित् दुराचारी मनुष्य की मुझमें श्रद्धा-भक्ति हो जाय और वह मेरा भजन करने लगे तो उसका भी उद्धार हो जाता है। प्रश्न-‘सुदुराचारः’ पद कैसे मनुष्यों का वाचक है और उसका ‘अनन्यभाक्’ होकर भगवान् को भजना क्या है? उत्तर- जिनके आचरण अत्यन्त दूषित हों, खान-पान और चाल-चलन भ्रष्ट हों, अपने स्वभाव, आसक्ति और बुरी आदत से विवश होने के कारण जो दुराचारों का त्याग न कर सकते हों, ऐसे मनुष्यों का वाचक यहाँ ‘सुदुराचारः’ पद है। ऐसे मनुष्यों का जो भगवान् के गुण, प्रभाव आदि के सुनने और पढ़ने से या अन्य किसी कारण से भगवान् को सर्वोत्तम समझ लेना और एकमात्र भगवान् का ही आश्रय लेकर अतिशय श्रद्धा-प्रेमपूर्वक उन्हीं को अपना इष्टदेव मान लेना है- यही उनका ‘अनन्यभाक्’ होना है। इस प्रकार भगवान् का भक्त बनकर जो उनके स्वरूप का चिन्तन करना, नाम, गुण, महिमा और प्रभाव का श्रवण, मनन और कीर्तन करना, उनको नमस्कार करना, पत्र-पुष्प आदि यथेष्ट वस्तु उनके अर्पण करके उनका पूजन करना तथा अपने किये हुए शुभ कर्मों को भगवान् के समर्पण करना है- यही ‘अनन्यभाक्’ होकर भगवान् का भजन करना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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