श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
नवम अध्याय
मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम् ।
उत्तर- इससे भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जगत्-रचनादि कार्यों के करने में मैं केवल अपनी प्रकृति को सत्ता-स्फूर्ति देने वाले अधिष्ठाता के रूप में स्थित रहता हूँ और मुझ अधिष्ठाता से सत्ता-स्फूर्ति पाकर मेरी प्रकृति ही जगत्-रचनादि समस्त क्रियाएँ करती है। प्रश्न- भगवान् की अध्यक्षता में प्रकृति सचराचर जगत् को किस प्रकार उत्पन्न करती है? उत्तर- जिस प्रकार किसान अपनी अध्यक्षता में पृथ्वी के साथ स्वयं बीज का सम्बन्ध कर देता है, फिर पृथ्वी उन बीजों के अनुसार भिन्न-भिन्न पौधों को उत्पन्न करती है, उसी प्रकार भगवान् अपनी अध्यक्षता में चेतनसमूहरूप बीज का प्रकृतिरूपी भूमि के साथ सम्बन्ध कर देते हैं।[1] इस प्रकार जड़-चेतन का संयोग कर दिये जाने पर यह प्रकृति समस्त चराचर जगत् को कर्मानुसार भिन्न-भिन्न योनियों में उत्पन्न कर देती है। यह दृष्टान्त केवल समझाने के लिये ही दिया गया है, वस्तुतः भगवान् के साथ ठीक-ठीक नहीं घटता; क्योंकि किसान अल्पज्ञ, अल्पशक्ति और एक देशीय है तथा वह अपनी शक्ति देकर जमीन से कुछ करवा भी नहीं सकता। परंतु भगवान् तो सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् और सर्वव्यापी हैं तथा उन्हीं की शक्ति तथा सत्ता-स्फूर्ति पाकर प्रकृति सम्पूर्ण जगत् को उत्पन्न करती है। प्रश्न- इसी हेतु यह संसारचक्र घूर रहा है इसका क्या अभिप्राय है? उत्तर- इससे भगवान् ने यह दिखलाया है कि मुझ भगवान् की अध्यक्षता और प्रकृति का कर्तृव्य- इन्हीं दोनों के द्वारा चराचरसहित समस्त जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और संहार आदि समस्त क्रियाएँ हो रही हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 14। 3
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