श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
नवम अध्याय
यथाकाशस्थितो नित्यं वायु: सर्वत्रगो महान ।
उत्तर- भूतप्राणियों के साथ वायु का सादृश्य दिखलाने के लिये उसे ‘सर्वत्रग’ और ‘महान्’ कहा गया है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार वायु सर्वत्र विचरने वाला है, उसी प्रकार सब भूत भी नाना योनियों में भ्रमण करने वाले हैं और जिस प्रकार वायु ‘महान्’ अर्थात् अत्यन्त विस्तृत है, उसी प्रकार भूत समुदाय भी बहुत विस्तार वाला है। प्रश्न- यहाँ ‘नित्यम्’ पद का प्रयोग करके वायु के सादा आकाश में स्थित बतलाने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- वायु आकाश से ही उत्पन्न होता है, आकाश में ही स्थित रहता है और आकाश में ही यह लीन हो जाता है भाव दिखलाने के लिये नित्यम् पद का प्रयोग किया जाता है अभिप्राय यह है कि सब अवस्थाओं में और सब समय वायु का आधार ही है। प्रश्न- जैसे वायु आकाश में स्थित है, उसी प्रकार सब भूत मुझमें स्थित हैं- इस कथन का क्या अभिप्राय है? उत्तर- आकाश की भाँति भगवान् को सम, निराकार, अकर्ता, अनन्त, असंग और निर्विकार तथा वायु की भाँति समस्त चराचर भूतों को भगवान् से ही उत्पन्न, उन्हीं में स्थित और उन्हीं में लीन होने वाले बतलाने के लिये ऐसा कहा गया है। जैसे वायु की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय आकाश में ही होने के कारण वह कभी किसी भी अवस्था में आकाश से अलग नहीं रह सकता, सदा ही आकाश में स्थित रहता है एवं ऐसा होने पर भी आकाश का वायु से और उसके गमनादि विकारों से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, वह सदा ही उसके अतीत है, उसी प्रकार समस्त प्राणियों की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय भगवान् के संकल्प के आधार होने के कारण समस्त भूतसमुदाय सदा भगवान् में ही स्थित रहता है; तथापि भगवान् उन भूतों से सर्वथा अतीत हैं और भगवान् सदा ही सब प्रकार के विकारों का सर्वथा अभाव है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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