अष्टम अध्याय
सम्बन्ध- इस प्रकार उत्तराण और दक्षिणायन- दोनों मार्गों का वर्णन करके अब उन दोनों को सनातन मार्ग बतलाकर इस विषय का उपसंहार करते हैं-
शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगत: शाश्वते मते ।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुन:।। 26 ।।
क्योंकि जगत के ये दो प्रकार के- शुक्ल और कृष्ण अर्थात देवयान और पितृयान मार्ग सनातन मार्ग सनातन माने गये हैं। इनमें एक के द्वारा गया हुआ- जिससे वापस नहीं लौटना पड़ता, उस परम गति को प्राप्त होता है और दूसरे के द्वारा गया हुआ है अर्थात जन्म-मृत्यु को प्राप्त होता है।। 26 ।।
प्रश्न- यहाँ ‘जगतः’ पद किसका वाचक है और दोनों गतियों के साथ उसका क्या सम्बन्ध है एवं इन दोनों मार्गों को ‘शाश्वत’ कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- यहाँ ‘जगतः’ पद ऊपर-नीचे के लोकों में विचरने वाले समस्त चराचर प्राणियों का वाचक है, क्योंकि सभी प्राणी अधिकार प्राप्त होने पर दोनों मार्गों के द्वारा गमन कर सकते हैं। चौरासी लाख योनियों में भटकते-भटकते कभी-न-कभी भगवान् दया करके जीवमात्र को मनुष्य-शरीर देकर अपने तथा देवताओं के लोकों में जाने का सुअवसर देते हैं। उस समय यदि वह जीवन का सदुपयोग करे तो दोनों में से किसी एक मार्ग के द्वारा गन्तव्य स्थान को अवश्य प्राप्त कर सकता है। अतएव प्रकारान्तर से प्राणिमात्र के साथ इन दोनों मार्गों का सम्बन्ध है। ये मार्ग सदा से ही समस्त प्राणियों के लिये हैं और सदैव रहेंगे। इसीलिये इनको ‘शाश्वत’ कहा है। यद्यपि महाप्रयल में जब समस्त लोक भगवान् में लीन हो जाते हैं, उस समय ये मार्ग और इनके देवता भी लीन हो जाते हैं, तथापि जब पुनः सृष्टि होती है, तब पूर्व की भाँति ही इनका पुनः निर्माण हो जाता है। अतः इनको ‘शाश्वत’ कहने में कोई आपत्ति नहीं है।
प्रश्न- इन मार्गों के ‘शुक्ल’ और ‘कृष्ण’ नाम रखने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- परमेश्वर के परमधाम में जाने का जो मार्ग है, वह प्रकाशमय-दिव्य है। उसके अधिष्ठातृदेवता भी सब प्रकाशमय हैं; और उसमें गमन करने वालों के अन्तःकरण में भी सदा ही ज्ञान का प्रकाश रहता है; इसीलिये इस मार्ग का नाम ‘शुक्ल’ रखा गया है। और जो ब्रह्मा के लोक तक समस्त देवलोकों में जाने का मार्ग है, वह शुक्लमार्ग की अपेक्षा अन्धकारयुक्त है। उसके अधिष्ठातृदेवता भी अन्धकार स्वरूप हैं तथा उसमें गमन करने वाले लोग भी अज्ञान से मोहित रहते हैं। इसलिये उस मार्ग का नाम ‘कृष्ण’ रखा गया है।
|