श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टम अध्याय
उत्तर- मन को हृदय में रोकने के बाद प्राणों को ऊर्ध्वगामी नाड़ी के द्वारा हृदय से ऊपर उठाकर मस्तक में स्थापित करने के लिये कहा गया है, ऐसा करने से प्राणों के साथ-साथ मन भी वहीं जाकर स्थित हो जाता है। प्रश्न- योगधारणा में स्थित रहना क्या है? और ‘योगधारणाम्’ के साथ ‘आत्मनः’ पद देने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- उपर्युक्त प्रकार से इन्द्रियों का संयम और मन तथा प्राणों का मस्तक में भलीभाँति निश्चल हो जाना ही योगधारणा में स्थित रहना है। ‘आत्मनः’ पद से यह बात दिखलायी गयी है कि यहाँ परमात्मा से सम्बन्ध रखने वाली योगधारणा का विषय है, अन्य देवतादिविषयक चिन्तन से या प्रकृति के चिन्तन से सम्बन्ध रखने वाली धारणा का विषय नहीं है। प्रश्न- यहाँ ओंकार को ‘एकाक्षर’ कैसे कहा? और इसे ‘ब्रह्म’ कहने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- दसवें अध्याय के पचीसवें श्लोक में भी ओंकार को ‘एक अक्षर’ कहा है।[1] इसके अतिरिक्त यह अद्वितीय अविनाशी परब्रह्म परमात्मा का नाम है और नाम तथा नामी में वास्वम में अभेद माना गया है; इसलिये भी ओंकार को ‘एक अक्षर’ और ‘ब्रह्म’ कहना उचित ही है। कठोपनिषद् में भी कहा है- एतद्धयेवाक्षरं ब्रह्म एतद्धयेवाक्षरं परम्। ‘यह अक्षर ही ब्रह्म है, यह अक्षर ही परम है; इसी अक्षर को जानकर ही जो जिसकी इच्छा करता है, उसे वही प्राप्त हो जाता है।’ प्रश्न- वाणी आदि इन्द्रियों के और मन के रुक जाने पर तथा प्राणों के मस्तक में स्थापित हो जाने पर ओंकार का उच्चारण कैसे हो सकेगा? उत्तर- यहाँ वाणी से उच्चारण करने के लिये नहीं कहा गया है। उच्चारण करने का अर्थ मन के द्वारा उच्चारण करना ही है। प्रश्न- यहाँ ‘माम्’ पद किसका वाचक है और उसका स्मरण करना क्या है? उत्तर- यहाँ ज्ञानयोगी के अन्तकाल का प्रसंग होने से ‘माम्’ पद सच्चिदानन्दघन निर्गुण-निराकार ब्रह्म का वाचक है। चौथे श्लोक में ‘इस शरीर में ‘अधियज्ञ’ मैं ही हूँ’ इस कथन से भगवान् ने जिस प्रकार अधियज्ञ के साथ अपनी एकता दिखलायी है, उसी प्रकार यहाँ ‘ब्रह्म’ के साथ अपनी एकता दिखलाने के लिये ‘माम्’ पद का प्रयोग किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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