श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टम अध्याय
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागा: ।
उत्तर- जिससे परमात्मा का ज्ञान होता है, उसे वेद कहते हैं; यह वेद इस समय चार संहिताओं के और ऐतरेयादि ब्राह्मण भाग के रूप में प्राप्त है। वेद के प्राण और वेद के आधार हैं- परब्रह्म परमात्मा। वे ही वेद के तात्पर्य हैं।[1] उस तात्पर्य को जो जानते हैं और जानकर उसे प्राप्त करने की अविरत साधना करते हैं तथा अन्त में प्राप्त कर लेते हैं, वे ज्ञानी महात्मा पुरुष ही वेदवित्-वेद के यथार्थ ज्ञाता हैं। प्रश्न- ‘वेद को जानने वाले जिसे अविनाशी बतलाते हैं’ इस वाक्य का क्या भाव है? उत्तर- ‘यत्’ पद से सच्चिदानन्दघन परब्रह्म का निर्देश है। यहाँ यह भाव दिखलाया गया है कि वेद के जानने वाले ज्ञानी महात्मा पुरुष ही उस ब्रह्म के विषय में कुछ कह सकते हैं, इसमें अन्य लोगों का अधिकार नहीं है। वे महात्मा कहते हैं कि यह ‘अक्षर’ है अर्थात् यह एक ऐसा महान् तत्त्व है, जिसका किसी भी अवस्था में कभी भी किसी भी रूप में क्षय नहीं होता; यह सदा अविनश्वर, एकरस और एकरूप रहता है। बारहवें अध्याय के तीसरे श्लोक में जिस अव्यक्त अक्षर की उपासना का वर्णन है, यहाँ भी यह उसी का प्रसंग है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 15। 15
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