अष्टम अध्याय
प्रश्न- ‘सदा तद्भावभावितः’ से क्या अभिप्राय है?
उत्तर- मनुष्य अन्तकाल में जिस भाव का स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करता है, वह उसी भाव को प्राप्त होता है- यह सिद्धान्त ठीक है परंतु अन्तकाल में किस भाव का स्मरण क्यों होता है, यह बतलाने के लिये ही भगवान् ‘सदा तद्भावभावितः’ कहते हैं। अर्थात् अन्तकाल में प्रायः उसी भाव का स्मरण होता है जिस भाव से चित्त सदा भावित होता है। जैसे वैद्य लोग किसी औषध में बार-बार किसी रस की भावना दे-देकर उसको उस रस से भावित कर लेते हैं वैसे ही पूर्वसंस्कार, संग, वातावरण, आसक्ति, कामना, भय और अध्ययन आदि के प्रभाव से मनुष्य जिस भाव का बार-बार चिन्तन करता है, वह उसी से भावित हो जाता है। ‘सदा’ शब्द से भगवान् ने निरन्तरता का निर्देश किया है। अभिप्राय यह है कि जीवन में सदा-सर्वदा बार-बार दीर्घकाल तक जिस भाव का अधिक चिन्तन किया जाता है उसी का दृढ़ अभ्यास हो जाता है। यह दृढ़ अभ्यास ही ‘सदा तद्भाव से भावित’ होना है और यह नियम है कि भाव का दृढ़ अभ्यास होता है उसी भाव का अन्तकाल में प्रायः अनायास ही स्मरण होता है।
प्रश्न- क्या सभी को अन्तकाल में जीवनभर अधिक चिन्तन किये हुए भाव का ही स्मरण होता है?
उत्तर- अधिकांश को तो ऐसा ही होता है। परंतु कहीं-कहीं जड़ भरत के चित्त में हरिण के बच्चे की भावना की भाँति मृत्यु-समय के समीपवर्ती काल में किया हुआ अल्पकाल का चिन्तन भी पुराने अभ्यास को दबाकर दृढ़रूप में प्रकट हो जाता है और उसी का स्मरण करा देता है।
|