श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टम अध्याय
अधिभूतं क्षरो भाव: पुरुषश्चाधिदैवतम् ।
उत्तर- अपरा प्रकृति और उसके परिणाम से उत्पन्न जो विनाशशील तत्त्व है, जिसका प्रतिक्षण क्षय होता है, उसका नाम ‘क्षरभाव’ है। इसी को तेरहवें अध्याय में ‘क्षेत्र’ (शरीर) के नाम से और पंद्रहवें अध्याय में ‘क्षर’ पुरुष के नाम से कहा गया है। यह ‘क्षरभाव’ शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार, भूत तथा विषयों के रूप में प्रत्यक्ष हो रहा है और जीवों के आश्रित है अर्थात् जीवरूपा चेतन परा प्रकृति ने इसे धारण कर रखा है; इसका नाम ‘अधिभूत’ है। सातवें अध्याय में भगवान् अपरा प्रकृति को भी अपनी ही प्रकृति बतला चुके हैं। इसलिये यह ‘क्षरभाव’ भी भगवान् ही है। अतएव यह भी उनमें अभिन्न है। भगवान् ने स्वयं ही कहा है कि ‘सत्-असत् सब मैं ही हूँ।’[1] प्रश्न- ‘हिरण्यमय पुरुष’ किसको कहा गया है और वह अधिदैव कैसे है? उत्तर- ‘पुरुष शब्द यहाँ ‘प्रथम पुरुष’ का वाचक है; इसी को सूत्रात्मा, हिरण्यगर्भ, प्रजापति या ब्रह्मा कहते हैं। जड़-चेतनात्मक सम्पूर्ण विश्व का यही प्राण-पुरुष है, समस्त देवता इसी के अंग हैं, यही सबका अधिष्ठाता, अधिपति और उत्पादक है; इसी से इसका नाम ‘अधिदैव’ है। स्वयं भगवान् ही अधिदैव के रूप में प्रकट होते हैं। इसलिये यह भी उनसे अभिन्न ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 9। 19
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