श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टम अध्याय
अक्षरं ब्रह्मा परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।
उत्तर- अक्षर के साथ ‘परम’ विशेषण देकर भगवान् यह बतलाते हैं कि सातवें अध्याय के उनतीसवें श्लोक में प्रयुक्त ‘ब्रह्म’ शब्द निर्गुण निराकार सच्चिदानन्दघन परमात्मा का वाचक है; वेद, ब्रह्मा और प्रकृति आदि का नहीं। जो सबसे श्रेष्ठ और सूक्ष्म होता है उसी को ‘परम’ कहा जाता है। ‘ब्रह्म’ और ‘अक्षर’ के नाम से जिन सब तत्त्वों का निदेश किया जाता है, उन सबमें सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ और पर एकमात्र सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा ही है; अतएव ‘परम अक्षर’ से यहाँ उसी परब्रह्म परमात्मा का लक्ष्य है। यह परम ब्रह्म परमात्मा और भगवान् वस्तुतः एक ही तत्त्व हैं। प्रश्न- स्वभाव ‘अध्यात्म’ कहा जाता है- इसका क्या तात्पर्य है? उत्तर- ‘स्वो भावः स्वभावः’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार अपने ही भाव का नाम स्वभाव है। जीवरूपा भगवान् की चेतन परा प्रकृति रूप आत्मतत्त्व ही जब आत्म-शब्द वाच्य शरीर, इन्द्रिय, मनबुद्ध्यादिरूप अपरा प्रकृति का अधिष्ठाता हो जाता है, तब उसे ‘अध्यात्म’ कहते हैं। अतएव सातवें अध्याय के उनतीसवें श्लोक में भगवान् ने ‘कृत्स्न’ विशेषण के साथ जो ‘अध्यात्म’ शब्द का प्रयोग किया है, उसका अर्थ ‘चेतन जीवसमुदाय’ समझना चाहिये। भगवान् की अंशरूपा चेतन परा प्रकृति वस्तुतः भगवान् से अभिन्न होने के कारण वह ‘अध्यात्म’ नामक सम्पूर्ण जीवसमुदाय भी यथार्थ में भगवान् से अभिन्न और उनका स्वरूप ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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