श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
सप्तम अध्याय
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये।
उत्तर- जब तक जन्म से छुटकारा नहीं मिलता, तब तक वृद्धावस्था और मृत्यु से छुटकारा मिलना असम्भव है और जन्म से छुटकारा तभी मिलता है, जब जीव अज्ञानजनित कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त होकर भगवान् को प्राप्त हो जाता है। भगवान् की प्राप्ति सब कामनाओं का त्याग करके दृढ़ निश्चय के साथ भगवान् का नित्य-निरन्तर भजन करने से ही होती है और ऐसा भजन मनुष्य से तभी होता है जब वह सत्संग का आश्रय लेकर पापों से छूट जाता है तथा आसुर भावों का सर्वथा त्याग कर देता है। भगवान् इसी अध्याय में कहा है- ‘आसुर स्वभाव वाले नीच और पापी मूढ़ मनुष्य मुझको नहीं भजते[1];’ इसीलिये सत्ताईसवें श्लोक में भी भगवान् को न जानने का कारण बतलाते हुए कहा गया है कि ‘राग-द्वेषजनित सुख-दुःखादि द्वन्द्वों के मोह में पड़े हुए जीव सर्वथा अज्ञान में डूबे रहते हैं।’ ऐसे मनुष्यों के मन नाना प्रकार की भोग-कामनाओं से भरे रहते हैं, उनके मन में अन्यान्य सब कामनाओं का नाश होकर जन्म-मरण से छुटकारा पाने की इच्छा ही नहीं जागती। इसीलिये अट्ठाइसवें श्लोक में भगवान् को पूर्णरूप से जानने के अधिकारी का निर्णय करते हुए उसे ‘पापरहित, पुण्यकर्मा, सुख-दुःखादि द्वन्द्वों से मुक्त और दृढ़निश्चयी होकर भगवान् को भजने वाला’ बतलाया गया है। ऐसे निष्पापहृदय पुरुष के मन में ही यह शुभ कामना जाग्रत होती है कि मैं जन्म-मरण के चक्कर से छूटकर कैसे शीघ्र-से-शीघ्र परब्रह्म परमात्मा को जान लूँ और प्राप्त कर लूँ। इसीलिये भगवान् कहते हैं कि ‘जो संसार के सब विषयों के आश्रय को छोड़कर दृढ़ विश्वास के साथ एकमात्र मेरा ही आश्रय लेकर निरन्तर मुझमें ही मन-बुद्धि को लगाये रखते हैं, वे मेरे शरण होकर यत्न करने वाले हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 7। 15
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