श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
सप्तम अध्याय
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
उत्तर- जिस जन्म में मनुष्य भगवान् का ज्ञानी भक्त बन जाता है, वही उसके बहुत-से जन्मों के अन्त का जन्म है। क्योंकि भगवान् को इस प्रकार तत्त्व से जान लेने के पश्चात् उसका पुनः जन्म नहीं होता; वही उसका अन्तिम जन्म होता है। प्रश्न- यदि यह अर्थ मान लिया जाय कि बहुत जन्मों तक सकामभाव से भगवान् की भक्ति करते-करते उसके बाद मनुष्य भगवान् का ऐकान्तिक ज्ञानी भक्त होता है, तो क्या हानि है? उत्तर- ऐसा मान लेने से भगवान् के अर्थार्थी, आर्त और जिज्ञासु भक्तों के बहुत-से जन्म अनिवार्य हो जाते हैं। परंतु भगवान् ने स्थान-स्थान पर अपने सभी प्रकार के भक्तों को अपनी प्राप्ति का होना बतलाया है[1] और वहाँ कहीं भी बहुत जन्मों की शर्त नहीं डाली है। अवश्य ही श्रद्धा और प्रेम की कमी से शिथिल साधन होने पर अनेक जन्म भी हो सकते हैं, परंतु यदि श्रद्धा और प्रेम की मात्रा बढ़ी हुई हो और साधन में तीव्रता हो तो एक ही जन्म में भगवत्प्राप्ति हो सकती है। इसमें काल का नियम नहीं है। प्रश्न- यहाँ ‘ज्ञानवान्’ शब्द का प्रयोग किसके लिये हुआ है? उत्तर- भगवान् ने इसी अध्याय के दूसरे श्लोक में विज्ञान सहित जिस ज्ञान के जानने की प्रशंसा की थी, जिस प्रेमी भक्त ने उस विज्ञान सहित ज्ञान को प्राप्त कर लिया है तथा तीसरे श्लोक में जिसके लिये कहा है कि कोई एक ही मुझे तत्त्व से जानता है, उसी के लिये यहाँ ‘ज्ञानवान्’ शब्द का प्रयोग हुआ है। इसीलिये अठारहवें श्लोक में भगवान् ने उसको अपना स्वरूप बतलाया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 7। 23; 9। 25
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज