श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
सप्तम अध्याय
त्यक्त्वा शय्यासनं पद्भ्यां कृपालुः कृपयाभ्यगात्। ‘कृपालु भगवान् कृपापरवश हो शय्या छोड़कर पैदल ही दौड़ पड़े।’ कौरवों की दानवी सभा में भगवान् का वस्त्रावतार हो गया! द्रौपदी के एक वस्त्र से दूसरा और दूसरे से तीसरा-इस प्रकार भिन्न-भिन्न रंगों के वस्त्र निकलने लगे, वस्त्रों का वहाँ ढेर लग गया। ठीक समय पर प्रिय बन्धु ने पहुँचकर अपनी द्रौपदी की लाज बचा ली, दुःशासन थककर जमीन पर बैठ गया! प्रश्न- जिज्ञासु भक्त के क्या लक्षण हैं? उत्तर- धन, स्त्री, पुत्र, गृह आदि वस्तुओं की और रोग-संकटादि की परवा न करके एक मात्र परमात्मा को तत्त्व से जानने की इच्छा से ही जो एकनिष्ठ होकर भगवान् की भक्ति करता है[1], उस कल्याणकामी भक्त को जिज्ञासु कहते हैं। जिज्ञासु भक्तों में परीक्षित् आदि अनेकों के नाम हैं, परंतु उद्धव जी का नाम विशेष प्रसिद्ध हैं श्रीमद्भागवत के एकादश स्कन्ध में अध्याय सात से तीस तक भगवान् श्रीकृष्ण ने उद्धवजी को बड़ा ही दिव्यज्ञान का उपदेश दिया है, जो उद्धवगीता के नाम से प्रसिद्ध है। प्रश्न- ज्ञानी भक्त के क्या लक्षण हैं? उत्तर- जो परमात्मा को प्राप्त कर चुके हैं, जिनकी दृष्टि में एक परमात्मा ही रह गये है- परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं और इस प्रकार परमात्मा को प्राप्त कर लेने से जिनकी समस्त कामनाएँ निःशेषरूप से समाप्त हो चुकी हैं तथा ऐसी स्थिति में जो सहज भाव से ही परमात्मा का भजन करते हैं, वे ज्ञानी हैं।[2] नवें अध्याय के तेरहवें और चौदहवें श्लोकों में तथा दसवें अध्याय के तीसरे और पंद्रहवें अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में जिनका वर्णन है, वे निष्काम अनन्य प्रेमी साधकभक्त भी ज्ञानी भक्तों के अन्तर्गत हैं। ज्ञानियों में शुकदेव जी, सनकादि, नारद जी और भीष्म जी आदि प्रसिद्ध हैं। बालक प्रह्लाद भी ज्ञानीभक्त माने जाते हैं, जिनको माता के गर्भ में ही देवर्षि नारद जी के द्वारा उपदेश प्राप्त हो गया था। ये दैत्यराज हिरण्यकशिपु के पुत्र थे। हिरण्यकशिपु भगवान् से द्वेष रखता था और ये भगवान् के भक्त थे। इससे हिरण्यकशिपु ने इन्हें बहुत ही सताया, साँपों से डँसाया, हाथियों से कुचलवाया, मकान से गिरवाया, समुद्र में फेंकवाया, आग में डलवाया और गुरुओं ने उन्हें मारने की चेष्टा की; परंतु भगवान् इन्हें बचाते गये। इनके लिये भगवान् ने श्रीनृसिंहदेव के रूप में प्रकट होकर हिरण्यकशिपु का वध किया। किसी भी भय से न डरना तो प्रह्लाद की ज्ञानस्थिति का सूचक है ही; पर गुरुगृह में इन्होंने बालकपन में ही अपने सहपाठियों को जो दिव्य उपदेश दिया है, उससे भी इनका ज्ञानी होना सिद्ध हो जाता है। भागवत और विष्णुपुराण में इनकी सुन्दर कथा पढ़नी चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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