श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
सप्तम अध्याय
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये ।
उत्तर- मनु, बुद्धि, अहंकार, इन्द्रिय, इन्द्रियों के विषय, तन्मात्राएँ, महाभूत और समस्त गुण-अवगुण तथा कर्म आदि जितने भी भाव हैं, सभी सात्त्विक, राजस और तामस भावों के अन्तर्गत हैं। इस समस्त पदार्थों का विकास और विस्तार भगवान् की ‘अपरा प्रकृति’ से होता है। और वह प्रकृति भगवान् की है, अतः भगवान् से भिन्न नहीं है, उन्हीं के लीला-संकेत से प्रकृति के द्वारा सबका सृजन, विस्तार और उपसंहार होता रहता है- इस प्रकार जान लेना ही उन सबको ‘भगवान् से होने वाले’ समझना है। प्रश्न- उपर्युक्त समस्त त्रिगुणमय भाव यदि भगवान् से ही होते हैं तो फिर वे मुझमें और मैं उनमें नहीं हूँ, इस कथन का क्या अभिप्राय है? उत्तर- जैसे आकाश में उत्पन्न होने वाले बादलों का कारण और आधार आकाश है, परंतु आकाश उनसे सर्वथा निर्लिप्त है। बादल आकाश में सदा नहीं रहते और अनित्य होने से वस्तुतः उनकी स्थिर सत्ता भी नहीं है; पर आकाश बादलों के न रहने पर भी सदा रहता है। जहाँ बादल नहीं है, वहाँ भी आकाश तो है ही; वह बादलों के आश्रित नहीं है। वस्तुतः बादल भी आकाश से भिन्न नहीं हैं, उसी में उससे उत्पन्न होते हैं। अतएव यथार्थ में बादलों की भिन्न सत्ता न होने से वह किसी समय भी बादलों में नहीं है, वह तो सदा अपने-आपमें ही स्थित है। इसी प्रकार यद्यपि भगवान् भी समस्त त्रिगुणमय भावों के कारण और आधार हैं, तथापि वास्तव में वे गुण भगवान् में नहीं हैं और भगवान् उनमें नहीं हैं। भगवान् तो सर्वथा और सर्वदा गुणातीत हैं तथा नित्य अपने-आपमें ही स्थित हैं। इसीलिये वे कहते हैं कि ‘उनमें मैं और वे मुझमें नहीं हैं।’ इसका स्पष्टीकरण नवें अध्याय के चौथे और पाँचवें श्लोक में देखना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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