श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
षष्ठ अध्याय
उत्तर- सब प्रकार के योगों के परिणाम स्वरूप समभाव का फल जो परमात्मा की प्राप्ति है उसका वाचक यहाँ ‘योगसंसिद्धिम्’ पद है तथा मरणकाल में समभाव रूप योग से या भगवान् के स्वरूप से मन के विचलित हो जाने के कारण परमात्मा का साक्षात् न होना ही उसे प्राप्त न होना है। प्रश्न- यहाँ ‘योग से विचलित होने’ का अर्थ मृत्यु के समय समता से विचलित हो जाना न मानकर यदि अर्जुन के प्रश्न का यह अभिप्राय मान लिया जाय कि ‘जो साधक कर्मयोग, ध्यानयोग आदि का साधन करते-करते उस साधन को छोड़कर विषय भोगों में लग जाता है, उसकी क्या गति होती है?’ तो क्या हानि है? उत्तर- अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते समय भगवान् ने मरने के बाद की गति का वर्णन किया है और उस साधक के दूसरे जन्म की ही बात कही है, इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ अर्जुन का प्रश्न मृत्युकाल के सम्बन्ध में ही है। इसके सिवा ‘गति’ शब्द भी प्रायः मरने के बाद होने वाले परिणाम का ही सूचक है, इससे भी यहाँ अन्तकाल का प्रकरण मानना उचित जान पड़ता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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