श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
षष्ठ अध्याय
उत्तर- इस लोक और परलोक के सम्पूर्ण पदार्थों में से जब आसक्ति और समस्त कामनाओं का पूर्णतया नाश हो जाता है, तब उसे ‘वैराग्य’ कहते हैं।[1] वैराग्यवान् पुरुष के चित्त में सुख या दुःख दोनों ही से कोई विशेष विकार नहीं होता। वह उस अचल और अटल आभ्यन्तरिक अनासक्ति या पूर्ण वैराग्य को प्राप्त होता है, जो किसी भी हालत में उसके चित्त को किसी ओर नहीं खिंचने देता। प्रश्न- वैराग्य कैसे हो सकता है? उत्तर - वैराग्य के अनेकों साधन हैं, उनमें से कुछ ये हैं-
इसी प्रकार के और भी अनेकों साधन हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वैराग्य की प्रायः इसी से मिलती-जुलती व्याख्या महर्षि पंतजलि ने योगदर्शन में की है-
‘दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम्।’ (1। 15) ‘स्त्री, धन, भवन, मान, बड़ाई आदि इस लोक के और स्वर्गादि परलोक के सम्पूर्ण विषयों में तृष्णारहित हुए चित्त की जो वशीकार-अवस्था होती है, उसका नाम ‘वैराग्य’ है।’
‘तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम्।’ (1। 16) ‘प्रकृति से अत्यन्त विलक्षण पुरुष के ज्ञान से तीनों गुणों में जो तृष्णा का अभाव हो जाना है, वह परवैराग्य या सर्वोत्तम वैराग्य है।’
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