श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
षष्ठ अध्याय
उत्तर- जगत् में जितने भी बड़े-से-बड़े सुख माने जाते हैं, वास्तव में उनमें सच्चा सुख कोई है ही नहीं। क्योंकि उनमे एक भी ऐसा नहीं है, जो सबसे बढ़कर महान् हो और नित्य एक-सा बना रहे। इसी से श्रुति कहती है- यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति, भूमैव सुखं भूमा त्वेव विजिज्ञासितव्यः।[1] ‘जो भूमा (महान् निरतिशय) है, वही सुख है, अल्प में सुख नहीं है। भूमा ही सुख है और भूमा को ही विशेष रूप से जानने की चेष्टा करनी चाहिये। ‘अल्प’ और ‘भूमा’ क्या है, इसको बतलाती हुई श्रुति फिर कहती है- यत्र नान्यत्पश्यति नान्यच्छृणोति नान्यद्विजानाति स भूमाऽथ यत्रान्यत्पश्यत्यन्यच्छृणोत्यन्यद्विजानाति तदल्पं यो वै भूमा तदमृतमथ यदल्पं तन्मर्त्यम्।[2] ‘जहाँ अन्य को नहीं देखता, अन्य को नहीं सुनता, अन्य को नहीं जानता, वह भूमा है और जहाँ अन्य को देखता है, अन्य को सुनता है, अन्य को जानता है, वह अल्प है। जो भूमा है, वही अमृत है और जो अल्प है, वह मरणशील (नश्वर) है।’ जो आज है और कल नष्ट हो जायगा, वह तो यथार्थ में सुख ही नहीं है। परन्तु यदि उसको किसी अंश में सुख मानें भी तो वह अत्यन्त ही तुच्छ और नगण्य है। महर्षि याज्ञवल्क्य सुखों का तुलनात्मक विवेचन करते हुए कहते हैं- समस्त भूमण्डल का साम्राज्य मनुष्यलोक का पूर्ण ऐश्वर्य और स्त्री, पुत्र, धन, जमीन, स्वास्थ्य, सम्मान, कीर्ति आदि समस्त भोग्यपदार्थ जिसको प्राप्त हैं, वह मनुष्यों में सबसे बढ़कर सुखी है; क्योंकि मनुष्यों का यही परम आनन्द है। उससे सौ गुना पितृलोक का आनन्द है, उससे सौ गुना गन्धर्वलोक का आनन्द है, उससे सौ गुना अपने कर्मफल से देवता बने हुए लोगों का आनन्द है, उससे सौ गुना आजान देवताओं का आनन्द है, उससे सौ गुना प्रजापतिलोक का आनन्द है और उससे सौगुना ब्रह्मलोक का आनन्द है। वही पापरहित अकाम श्रोतिक परम आनन्द है‚ क्योंकि तृष्णारहित श्रोत्रिय प्रत्यक्ष-ब्रह्मलोक ही है।[3] जो ब्रह्म को साक्षात् प्राप्त है, उसको तो वह अनन्त असीम साक्षात् प्राप्त है, उसको तो वह अनन्त असीम अचिन्त्य आनन्द प्राप्त है, जिसकी किसी के साथ तुलना ही नहीं हो सकती। ऐसा वह निरतिशय आनन्द परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त पुरुष का अपना स्वरूप ही होता है। यही इस कथन का अभिप्राय है। इसी अनन्त आनन्दमय आनन्द को इक्कीसवें श्लोक में ‘आत्यन्तिक सुख’ और पाँचवें अध्याय के इक्कीसवें श्लोक में ‘अक्षय सुख’ बतलाया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज