श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
षष्ठ अध्याय
उत्तर- मैं देह नहीं, सच्चिदानन्दघन ब्रह्म हूँ- इस प्रकार का अभ्यास करते-करते साधक की सच्चिदानन्दघन परमात्मा में दृढ़ स्थिति हो जाती है। इस प्रकार अभिन्नभाव से ब्रह्म में स्थित पुरुष को ‘ब्रह्मभूत’ कहते हैं। प्रश्न- ‘ यह ‘ब्रह्मभूतम्’ पद साधक का वाचक है या सिद्ध पुरुष का? उत्तर- ‘ब्रह्मभूतम्’ पद उच्च श्रेणी के अभेदमार्गीय साधन का वाचक है। ऐसे साधक के रजोगुण और तमोगुण तो शान्त हो गये हैं, परन्तु वह गुणों से सर्वथा अतीत नहीं हो गया है। वह अपनी दृष्टि से तो ब्रह्म के स्वरूप में ही स्थित है, परन्तु वस्तुतः ब्रह्म को प्राप्त नहीं है। इस प्रकार ब्रह्म के स्वरूप में दृढ़ स्थिति हो जाने पर शीघ्र ही तत्त्वज्ञान के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है। इसी कारण अगले श्लोक में इस स्थिति का फल ‘आत्यन्तिक सुख की प्राप्ति’ बतलाया गया है। यह ‘आत्यान्तिक सुख की प्राप्ति’ ही ब्रह्म की प्राप्ति है। पाँचवें अध्याय के चौबीसवें श्लोक में भी इसी अर्थ में ‘ब्रह्मभूतः’ पद आया है और वहाँ उसका फल ‘निर्णणब्रह्म की प्राप्ति’ बतलाया गया है अठारहवें अध्याय के चौवनवें श्लोक में भी ‘ब्रह्मभूत’ पुरुष पराभक्ति (तत्त्वज्ञान) की प्राप्ति बतलाकर उसके अनन्तर परमात्मा की प्राप्ति बतलायी गयी है।[1] अतएव यहाँ ‘ब्रह्मभूतम्’ पद सिद्ध पुरुष का वाचक नहीं है। प्रश्न- ‘उत्तम सुख की प्राप्ति’ से क्या अभिप्राय है? उत्तर- तमोगुण और रजोगुण से अतीत शुद्ध सत्त्व में स्थित साधक के नित्य विज्ञानानन्दघन परमात्मा के ध्यान में अभिन्नभाव से स्थित हो जाने पर उसे जो ध्यानजनित सात्त्विक आनन्द मिलता है, उसी को यहाँ ‘उत्तम सुख’ कहा गया है। पाँचवें अध्याय के इक्कीसवें के पूर्वार्द्ध में जिसे ‘सुख’ कहा गया है तथा चौबीसवें श्लोक में जिसे ‘अन्तःसुख’ कहा गया है, उसी का पर्यायवाची शब्द यहाँ ‘उत्तम सुख’ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 18। 55
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