श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
षष्ठ अध्याय
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया ।
उत्तर- ध्यानयोग के अभ्यास का नाम ‘योगसेवा’ है। उस ध्यानयोग का अभ्यास करते-करते जब चित्त एकमात्र परमात्मा में ही भलीभाँति स्थित हो जाता है, तब वह ‘निरुद्ध’ कहलाता है। प्रश्न- इस प्रकार परमात्मा के स्वरूप में निरुद्ध हुए चित्त का उपरत होना क्या है? उत्तर- जिस समय योगी का चित्त परमात्मा के स्वरूप में सब प्रकार से निरुद्ध हो जाता है, उसी समय उसका चित्त संसार से सर्वथा उपरत हो जाता है; फिर उसके अन्तःकरण में संसार के लिये कोई स्थान ही नहीं रह जाता। यद्यपि लोकदृष्टि में उसका चित्त समाधि के समय संसार से उपरत और व्यवहार काल में संसार का चिन्तन करता हुआ-सा प्रतीत होता है, किन्तु वास्तव में उसका संसार से कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता-यही उसके चित्त का सदा के लिये संसार से उपरत हो जाना है। प्रश्न- यहाँ ‘यत्र’ किसका वाचक है? उत्तर- जिस अवस्था में ध्यानयोग के साधक का परमात्मा से संयोग हो जाता है अर्थात् उसे परमात्मा का प्रत्यक्ष हो जाता है और संसार से उसका सम्बन्ध सदा के लिये छूट जाता है, तथा तेईसवें श्लोक में भगवान् ने जिसका नाम ‘योग’ बतलाया है, उसी अवस्था विशेष का वाचक यहाँ ‘यत्र’ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज