श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
षष्ठ अध्याय
उत्तर- परमात्मा सर्वत्र हैं और ध्यानयोगी परमात्मा का ध्यान करके उन्हें देखना चाहता है, फिर वह डरे क्यों? अतएव ध्यान करते समय साधन को निर्भय रहना चाहिये। मन में जरा भी भय रहेगा तो एकान्त और निर्जन स्थान में स्वाभाविक ही चित्त में विक्षेप हो जायगा। इसलिये साधक को उस समय मन में यह दृढ़ सत्य धारणा कर लेनी चाहिये कि परमात्मा सर्वशक्तिमान् हैं और सर्वव्यापी होने के कारण यहाँ भी सदा हैं ही, उनके रहते किसी बात का भय नहीं है। यदि कदाचित् प्रारब्धवश ध्यान करते-करते मृत्यु हो जाय, तो उससे भी परिणाम में परम कल्याण ही होगा। सच्चा ध्यान-योगी इस विचार पर दृढ़ रहता है, इसी से उसे ‘विगतभीः’ कहा गया है। प्रश्न- ‘प्रशान्तात्मा’ का क्या अभिप्राय है? उत्तर- ध्यान करते समय मन से राग-द्वेष, हर्ष-शोक और काम-क्रोध आदि दूषित वृत्तियों को तथा सांसारिक संकल्प-विकल्पों को सर्वथा दूर कर देना चाहिये। वैराग्य के द्वारा मन को सर्वथा निर्मल और शान्त करके ध्यानयोग का साधन करना चाहिये। यही भाव दिखलाने के लिये ‘प्रशान्तात्मा’ विशेषण दिया गया है। प्रश्न- ‘युक्तः’ विशेषण का क्या अभिप्राय है? उत्तर- ध्यान करते समय साधक को निद्रा, आलस्य, और प्रमाद आदि विघ्नों से बचने के लिये खूब सावधान रहना चाहिये। ऐसा न करने से मन और इन्द्रियाँ उसे धोखा देकर ध्यान में अनेक प्रकार के विघ्न उपस्थित कर सकती हैं। इसी बात को दिखलाने के लिये ‘युक्तः’ विशेषण दिया गया है। प्रश्न- मन को रोकना क्या है? उत्तर- एक जगह न रुकना और रोकते-रोकते भी बलात् विषयों में चले जाना मन का स्वभाव है। इस मन को भलीभाँति रोके बिना ध्यानयोग का साधन नहीं बन सकता। इसलिये ध्यान करते समय मन को बाह्य विषयों से भलीभाँति हटाकर उसे अपने लक्ष्य में पूर्णरूप से निरुद्ध कर देना यानी भगवान् में तन्मय कर देना ही यहाँ मन को रोकना है। प्रश्न- ‘मच्चित्तः’ का क्या भाव है? उत्तर- ध्येय वस्तु में चित्त के एकतान प्रवाह का नाम ध्यान है; वह ध्येय वस्तु क्या होनी चाहिये, यही बतलाने के लिये भगवान् कहते हैं कि तुम अपने चित्त को मुझमें लगाओ। चित्त सहज ही उस वस्तु में लगता है, जिसमें यथार्थ प्रेम होता है; इसलिये ध्यानयोगी को चाहिये कि वह परम हितैषी, परम सुहृद, परम प्रेमास्पद परमेश्वर के गुण, प्रभाव, तत्त्व और रहस्य को समझकर, सम्पूर्ण जगत् से प्रेम हटाकर, एकमात्र उनहीं को अपना ध्येय बनावे और अनन्यभाव से चित्त को उन्हीं में लगाने का अभ्यास करे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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