श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
पंचम अध्याय
उत्तर- सम्पूर्ण जगत् में कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है जो भगवान् को न प्राप्त हो और जिसके लिये भगवान् का कहीं किसी से कुछ भी स्वार्थ का सम्बन्ध हो। भगवान् तो सदा सर्वदा सभी प्रकार से पूर्णकाम हैं[1]; तथापि दयामय स्वरूप होने के कारण वे स्वाभाविक ही सब पर अनुग्रह करके सब के हित की व्यवस्था करते हैं और बार-बार अवतीर्ण होकर नाना प्रकार के ऐसे विचित्र चरित्र करते हैं, जिन्हें गा-गाकर ही लोग तर जाते हैं। उनकी प्रत्येक क्रिया में जगत् का हित भरा रहता है। भगवान् जिनको मारते या दण्ड देते हैं उन पर भी दया ही करते हैं, उनका कोई भी विधान दया और प्रेम से रहित नहीं होता। इसीलिये भगवान् सब भूतों के सुहृद् हैं। लोग इस रहस्य को नहीं समझते इसी से वे लौकिक दृष्टि से इष्ट-अनिष्ट की प्राप्ति में सुखी-दुःखी होते रहते हैं और इसी से उन्हें शान्ति नहीं मिलती। जो पुरुष इस बात को जान लेता है और विश्वास कर लेता है कि ‘भगवान् मेरे अहैतुक प्रेमी हैं, वे जो कुछ भी करते हैं, मेरे मंगल के लिये ही करते हैं।’ वह प्रत्येक अवस्था में जो कुछ भी होता है, उसको दयामय परमेश्वर का प्रेम और दया से ओत-प्रोत मंगलविधान समझकर सदा ही प्रसन्न रहता है। इसलिये उसे अटल शान्ति मिल जाती है। उसकी शान्ति में किसी प्रकार की भी बाधा उपस्थित होने का कोई कारण ही नहीं रह जाता। संसार में यदि किसी साधारण मनुष्य के प्रति, किसी शक्तिशाली उच्चपदस्थ अधिकारी या राजा-महाराजा का सुहृद्भाव हो जाता है और वह मनुष्य यदि इस बात को जान लेता है कि अमुक श्रेष्ठ शक्ति सम्पन्न पुरुष मेरा यथार्थ हित चाहते हैं और मेरी रक्षा करने को प्रस्तुत हैं तो- यद्यपि उच्चपदस्थ अधिकारी या राजा-महाराज सर्वथा स्वार्थरहित भी नहीं होते, सर्वशक्तिमान् भी नहीं होते और सबके स्वामी भी नहीं होते तथापि- वह अपने को बहुत भाग्यवान् समझकर एक प्रकार से निर्भय और निश्चिन्त होकर आनन्द में मग्न हो जाता है, फिर यदि सर्वशक्तिमान्, सर्वलोकमहेश्वर, सर्वनियन्ता, सर्वान्तर्यामी, सर्वदर्शी, अनन्त अचिन्त्य गुणों के समुद्र, परम प्रेमी परमेश्वर अपने को हमारा सुहृद् बतलावें और हम इस बात पर विश्वास करके उन्हें अपना सुहृद् मान लें तो हमें कितना अलौकिक आनन्द और कैसी अपूर्व शान्ति मिलेगी? इसका अनुमान लगाना भी कठिन है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 3/22
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