श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
पंचम अध्याय
उत्तर- संसार में सभी मनुष्य सुख चाहते हैं, परन्तु वास्तविक सुख क्या है और कैसे मिलता है, इस बात को न जानने के कारण वे भ्रम से भोगों में ही सुख समझ बैठते हैं, उन्हीं की कामना करते हैं और उन्हीं को प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं। उसमें बाधा आने पर वे क्रोध के वश हो जाते हैं। परन्तु नियम यह है कि काम-क्रोध के वश में रहने वाला मनुष्य कदापि सुखी नहीं हो सकता। जो कामना के वश है, वह स्त्री-पुत्र और धन-मानादि की प्राप्ति के लिये और जो क्रोध के वश है वह दूसरों का अनिष्ट करने के लिये भाँति-भाँति के अनर्थों में और पापों में प्रवृत्त होता है। परिणाम में वह इस लोक में रोग, शोक, अपमान, अपयश, आकुलता, भय, अशान्ति, उद्वेग और नाना प्रकार के तापों को तथा परलोक में नरक और पशु-पक्षी, कृमि-कीटादि योनियों में भाँति-भाँति के क्लेशों को प्राप्त होता है।[1] इस प्रकार वह सुख न पाकर सदा दुःख ही पाता है। परन्तु जिन पुरुषों ने भोगों को दुःख के हेतु और क्षणभंगुर समझकर काम-क्रोधादि शत्रुओं पर भली-भाँति विजय प्राप्त कर ली है और जो उनके पंजे से पूर्णरूपेण छूट गये हैं, वे सदा सुखी ही रहते हैं इसी अभिप्राय से ऐसे पुरुष को ‘सुखी’ कहा गया है। प्रश्न- यहाँ ‘नरः’ इस पद का प्रयोग किसलिये किया गया है? उत्तर- सच्चा ‘नर’ वही है जो काम-क्रोधादि दुर्गुणों को जीतकर भोगों में वैराग्यवान् और उपरत होकर सच्चिदानन्दघन परमात्मा को प्राप्त कर ले। ‘नर’ शब्द वस्तुतः ऐसे ही मनुष्य का वाचक है, फिर आकार में चाहे वह स्त्री हो या पुरुष! अज्ञान-विमोहित मनुष्य आसक्तिवश आपातरमणयी विषयों के प्रलोभन में फँसकर परमात्मा को भूल जाता है और काम-क्रोधादि के परायण होकर नीच पशुओं और पिशाचों की भाँति आहार, निद्रा, मैथुन और कलह में ही प्रवृत्त रहता है। वह ‘नर’ नहीं है वह तो पशु से भी गया बीता बिना सींग-पूँछ का अशोभन, निकम्मा और जगत् को दुःख देने वाला जन्तुविशेष हैं परमात्मा को प्राप्त सच्चे ‘नर’ के गुण और आचरण का लक्ष्य बनाकर जो साधक काम-क्रोधादि शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर चुकते हैं वे भी ‘नर’ ही हैं, इसी भाव से यहाँ ‘नर’ शब्द का प्रयोग किया गया है। प्रश्न- जिसने काम-क्रोध को जीत लिया है तथा जिसे ‘युक्त’ और ‘सुखी’ कहा गया है, उस पुरुष को साधक ही क्यों मानना चाहिये। उसे सिद्ध मान लिया जाय तो क्या हानि है। उत्तर- केवल काम-क्रोध पर विजय प्राप्त कर लेने मात्र से ही कोई सिद्ध नहीं हो जाता।[2] सिद्ध में तो काम-क्रोधादि की गन्ध भी नहीं रहती। यह बात इसी अध्याय के छब्बीसवें श्लोक में भगवान् ने कही है। फिर यहाँ उसे ‘सुखी’ ही बतलाया गया है, यदि वह ‘अक्षय सुख’ को प्राप्त करने वाला सिद्ध पुरुष होता तो उसके लिये यहाँ ‘परम सुखी’ या अन्य कोई विलक्षण विशेषण दिया जाता। यहाँ वह उसी ‘सात्त्विक’ सुख का अनुभव करने वाला पुरुष है जो इक्कीसवें श्लोक के पूर्वार्द्ध के अनुसार परमात्मा के ध्यान में प्राप्त होता है। इसलिये इस श्लोक में वर्णित पुरुष को साधक ही समझना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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