श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
पंचम अध्याय
उत्तर- इन्द्रियों के भोगों को स्वप्न की या बिजली की चमक की भाँति अनित्य और क्षणभंगुर बतलाने के लिये ही उन्हें ‘आदि-अन्तवाले’ कहा गया है। वस्तुतः इनमें सुख है ही नहीं; परन्तु यदि अज्ञानवश सुखरूप प्रतीत होने के कारण कोई इन्हें किसी अंश में सुख के कारण मनें, तो वह सुख भी नित्य नहीं है, क्षणिक ही हैं क्योंकि जो वस्तु स्वयं अनित्य होती है, उससे नित्य सुख नहीं मिल सकता। दूसरे अध्याय के चौदहवें श्लोक में भी भगवान् ने इन्द्रियों के विषयों को उत्पत्ति विनाश शील होने के कारण अनित्य बतलाया है। प्रश्न- यहाँ अर्जुन को भगवान् ने ‘कौन्तेय’ सम्बोधन देकर क्या सूचित किया है? उत्तर- अर्जुन की माता कुन्ती देवी बड़ी ही बुद्धिमती, संयमशील, विवेकवती और विषय-भोगों से विरक्त रहने वाली थीं; नारी होने पर भी उन्होंने अपना सारा जीवन वैराग्ययुक्त धर्माचरण और भगवान् की भक्ति में ही बिताया। अतएव इस सम्बोधन से भगवान् अर्जुन को माता कुन्ती के महत्त्व की याद दिलाते हुए यह सूचित करते हैं कि ‘अर्जुन! तुम उन्हीं धर्मशीला कुन्तीदेवी के पुत्र हो, तुम्हारे लिये तो इन विषयों में आसक्त होने की कोई सम्भावना ही नहीं है।’ प्रश्न- अज्ञानी मनुष्य विषय-भोगों में रमता है और विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता, इसमें क्या कारण है? उत्तर- विषय-भोग वास्तव में अनित्य, क्षणभंगुर और दुःखरूप ही हैं, परन्तु विवेकहीन अज्ञानी पुरुष इस बात को न जान-मानकर उनमें रमता है और भाँति-भाँति के क्लेश भोगता है; परन्तु बुद्धिमान् विवेकी पुरुष उनकी अनित्यता और क्षणभंगुरता पर विचार करता है तथा उन्हें काम-क्रोध, पाप-ताप आदि अनर्थों में हेतु समझता है और उनकी आसक्ति के त्याग को अक्षय सुख की प्राप्ति में कारण समझता है, इसलिये वह उनमें नहीं रमता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज