श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
पंचम अध्याय
उत्तर- उपर्युक्त प्रकार से जो पुरुष इन्द्रियों के समस्त विषयों में आसक्तिरहित होकर उपरति को प्राप्त हो गया है तथा परमात्मा के ध्यान की अटल स्थिति से उत्पन्न महान् सुख का अनुभव करता है, उसे ‘ब्रह्मयोगयुक्तात्मा’ अर्थात् परब्रह्म परमात्मा के ध्यानरूप योग में अभेदभाव से स्थित कहा है। और पहले बतलाये हुए दोनों लक्षणों के साथ इस ‘ब्रह्मयोगयुक्तात्मा’ की एकता का संकेत करने के लिये ‘सः’ का प्रयोग किया गया है। प्रश्न- अक्षय आनन्द क्या है और उसको अनुभव करने का क्या भाव है? उत्तर- सदा एक रस रहने वाला परमानन्द-स्वरूप अविनाशी परमात्मा ही ‘अक्षय सुख’ हैं और नित्य-निरन्तर ध्यान करते-करते उस परमात्मा को जो अभिन्न भाव से प्रत्यक्ष कर लेना है, यही उसका अनुभव करना है। इस ‘सुख’ की तुलना में कोई-सा भी सुख नहीं ठहर सकता। सांसारिक भोगों में जो सुख प्रतीति होती है, वह तो सर्वथा नगण्य और क्षणिक हैं उसकी अपेक्षा वैराग्य और उपरति के सुख-ध्यानजनित सुख में हेतु होने के कारण अधिक स्थायी हैं और ‘ध्यानजनित सुख’ परमात्मा की साक्षात् प्राप्ति का कारण होने से उनकी अपेक्षा भी अधिक स्थायी है; परन्तु साधनकाल के इन सुखों में से किसी को भी अक्षय नहीं कहा जा सकता; ‘अक्षय आनन्द’ तो परमात्मा का स्वरूप ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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