श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
पंचम अध्याय
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु: ।
उत्तर- सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करने वाले सर्वशक्तिमान् परमेश्वर का वाचक यहाँ ‘प्रभु’ पद है। क्योंकि शास्त्रों में जहाँ कहीं भी परमेश्वर को सृष्टि-रचनादि कर्मों का कर्ता बतलाया गया है, वहाँ सगुण परमेश्वर के प्रसंग में ही बतलाया गया है। परमेश्वर मनुष्यों के कर्तापन की रचना नहीं करते, इस कथन का यह भाव है कि मनुष्यों का जो कर्मों में कर्तापन है, वह भगवान् का बनाया हुआ नहीं है। अज्ञानी मनुष्य अहंकार के वश में होकर अपने को उनका कर्ता मान लेते हैं।[1] मनुष्यों के कर्मों की रचना भगवान् नहीं करते, इस कथन का यह भाव है कि अमुक शुभ या अशुभ कर्म अमुक मनुष्य को करना पड़ेगा, ऐसी रचना भगवान् नहीं करते, क्योंकि ऐसी रचना यदि भगवान् कर दे तो विधि-निषेध-शास्त्र ही व्यर्थ हो जाय तथा उसकी कोई सार्थकता ही नहीं रहे। कर्मफल के संयोग की रचना भी भगवान् नहीं करते, इस कथन का यह भाव है कि कर्मों के साथ सम्बन्ध मनुष्यों का ही अज्ञानवश जोड़ा हुआ है। कोई तो आसक्तिवश उनका कर्ता बनकर और कोई कर्मफल में आसक्त होकर अपना सम्बन्ध कर्मों के साथ जोड़ लेते हैं। यदि इन तीनों की रचना भगवान् को हुई होती तो मनुष्य कर्मबन्धन से छूट ही नहीं सकता, उसके उद्धार का कोई उपाय ही नहीं रह जाता। अतः साधक मनुष्य को चाहिये कि कर्मों का कर्तापन पूर्वोक्त प्रकार से प्रकृति के अर्पण करके[2] या भगवान् के अर्पण करके[3] अथवा कर्मों के फल और आसक्ति का सर्वथा त्याग करके[4] कर्मों से अपना सम्बन्ध-विच्छेद कर ले।[5] यही भाव दिखलाने के लिये यह कहा है कि परमेश्वर मनुष्यों के कर्तापन, कर्म और कर्मफल की रचना नहीं करते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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