श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
पंचम अध्याय
सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी ।
उत्तर- यद्यपि सांख्ययोगी का उसकी अपनी दृष्टि से शरीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण से कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता; वह सदा सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही अभिन्न रूप से स्थित रहता है; तथापि लोकदृष्टि में तो वह शरीरधारी ही दीखता है। इसीलिये उसको ‘देही’ कहा गया है। इसी प्रकार चौदहवें अध्याय के बीसवें श्लोक में गुणातीत के वर्णन में भी ‘देही’ शब्द आया है। तथा लोकदृष्टि से उसके मन, बुद्धि और इन्द्रियों की चेष्टाएँ नियमितरूप से शास्त्रानुकूल और लोकसंग्रह के उपयुक्त होती हैं; इसलिये उसे ‘वशी’ कहा है। प्रश्न- यहाँ ‘एव’ किस भाव का द्योतक है? उत्तर- सांख्ययोगी का शरीर और इन्द्रियों में अहंभाव न रहने के कारण उनके द्वारा होने वाले कर्मों का वह कर्ता नहीं बनता और ममत्व न रहने के कारण वह करवाने वाला भी नहीं बनता। अतः ‘न कुर्वन्’ और ‘न कारयन्’ के साथ ‘एव’ का प्रयोग करके यह भाव दिखलाया है कि सांख्ययोगी में अहंता-ममता का सर्वथा अभाव होने के कारण वह किसी प्रकार भी शरीर, इन्द्रिय और मन आदि के द्वारा होने वाले कर्मों का करने वाला या करवाने वाला कभी नहीं बनता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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