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पंचम अध्याय
प्रश्न- यहाँ देखने-सुनने आदि की सब क्रियाएँ करते रहने पर भी मैं कुछ भी नहीं करता, इसका क्या भाव है?
उत्तर- जैसे स्वप्न से जगा हुआ मनुष्य समझता है कि स्वप्नकाल में स्वप्न के शरीर, मन, प्राण और इन्द्रियों द्वारा मुझे जिन क्रियाओं के होने की प्रतीति होती थी, वास्तव में न तो वे क्रियाएँ होती थीं और न मेरा उनसे कुछ भी सम्बन्ध ही था; वैसे ही तत्त्व को समझकर निर्विकार अक्रिय परमात्मा में अभिन्नभाव से स्थित रहने वाले सांख्ययोगी को भी ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय, प्राण और मन आदि के द्वारा लोकदृष्टि से की जाने वाली देखने-सुनने आदि की समस्त क्रियाओं के करते समय यही समझना चाहिये कि ये सब मायामय मन, प्राण और इन्द्रिय ही अपने-अपने मायामय विषयों में विचर रहे हैं। वास्तव में न तो कुछ हो रहा है और न मेरा इनसे कुछ सम्बन्ध ही है।
प्रश्न- तब तो जो मनुष्य राग-द्वेष और काम-क्रोधादि दोषों के रहने पर भी अपनी मान्यता के अनुसार सांख्ययोगी बने हुए हैं, वे भी कह सकते हैं कि हमारे मन-इन्द्रिय के द्वारा जो कुछ भी भली-बुरी क्रियाएँ होती हैं, उनसे हमारा कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। ऐसी अवस्था में यथार्थ सांख्ययोगी की पहचान कैसे होगी?
उत्तर- कथनमात्र से न तो कोई सांख्ययोगी ही हो सकता है और उसका कर्मों से सम्बन्ध ही छूट सकता है। सच्चे और वास्तविक सांख्ययोगी के ज्ञान में तो सम्पूर्ण प्रपंच स्वप्न की भाँति मायामय होता है, इसलिये उसकी किसी भी वस्तु में किंचित् भी आसक्ति नहीं रहती। उसमें राग-द्वेष का सर्वथा अभाव हो जाता है और काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि दोष उसमें जरा भी नहीं रहते। ऐसी अवस्था में निषिद्धाचरण का कोई भी हेतु न रहने के कारण उसके विशुद्ध मन और इन्द्रियों द्वारा जो भी चेष्टाएँ होती हैं, सब शास्त्रानुकूल और लोकहित के लिये ही होती हैं। वास्तविक सांख्ययोगी की यही पहचान है। जब तक अपने अंदर राग-द्वेष और काम-क्रोधादि कुछ भी अस्तित्व जान पड़े तब तक सांख्ययोग के साधक को अपने साधन में त्रुटि ही समझनी चाहिये।
प्रश्न- सांख्ययोगी शरीर निर्वाह मात्र के लिये केवल खान-पान आदि आवश्यक क्रिया ही करता है या वर्णाश्रमानुसार शास्त्रानुकूल सभी कर्म करता है?
उत्तर- कोई खास नियम नहीं है। वर्ण, आश्रम, प्रकृति, प्रारब्ध, संग और अभ्यास का भेद होने के कारण सभी सांख्ययोगियों के कर्म एक-से नहीं होते। यहाँ ‘पश्यन्’, ‘श्रृण्वन्’, ‘स्पृशन्’, जिघ्रन्’, और ‘अश्नन्’- इन पाँच पदों से आँख, कान, त्वचा, घ्राण और रसना-इन पाँच ज्ञानेन्द्रियों की समस्त क्रियाएँ क्रम से बतलायी गयी हैं। ‘गच्छन्’, ‘गृहृन्’ और ‘प्रलपन्’ से पैर, हाथ और वाणी की एवं ‘विसृजन्’ से उपस्थ और गुदा की, इस प्रकार पाँचों कर्मेन्द्रियों की क्रियाएँ बतलायी गयी हैं। ‘श्वसन्’ पद प्राण-अपानादि पाँचों प्राणों की क्रियाओं का बोधक है। वैसे ही ‘उन्मिषन्’, ‘निमिषन्’ पद कूर्म आदि पाँचों वायुभेदों की क्रियाओं के बोधक हैं और ‘स्वपन्’ पद अन्तःकरण की क्रियाओं का बोधक है। इस प्रकार सम्पूर्ण इन्द्रिय, प्राण और अन्तःकरण की क्रियाओं का उल्लेख होने के कारण सांख्ययोगी के द्वारा उसके वर्ण आश्रम, प्रकृति, प्रारब्ध और संग के अनुसार शरीर-निर्वाह तथा लोकोपकारार्थ, शास्त्रानुकूल खान-पान, व्यापार, उपदेश, लिखना, पढ़ना, सुनना, सोचना आदि सभी क्रियाएँ हो सकती हैं।
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