पंचम अध्याय
सम्बन्ध- अब उपर्युक्त कर्मयोगी के लक्षणों का वर्णन करते हुए उसके कर्मों में लिप्त न होने की बात कहते हैं-
योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रिय: ।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ।।7 ।।
जिसका मन अपने वश में है, जो जितेन्द्रिय एवं विशुद्ध अन्त:करण वाला है और सम्पूर्ण प्राणियों का आत्म स्वरूप परमात्मा ही जिसका आत्मा है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता ।।7।।
प्रश्न- ‘योगयुक्तः’ के साथ ‘विजितात्मा’, ‘जितेन्द्रियः’ और विशुद्धत्मा’ ये विशेषण किस अभिप्राय से दिये गये हैं?
उत्तर- मन और इन्द्रियाँ यदि साधक के वश में न हों तो उनकी स्वाभाविक ही विषयों में प्रवृत्ति होती है और अन्तःकरण में जब तक राग-द्वेषादि मल रहता है तब तक सिद्धि और असिद्धि में समभाव रहना कठिन होता है। अतएव जब तक मन और इन्द्रियाँ भलीभाँति वश में न हो जायँ और अन्तःकरण पूर्णरूप से परिशुद्ध न हो जाय तब तक साधक को वास्तविक कर्मयोगी नहीं कहा जा सकता। इसीलिये यहाँ उपर्युक्त विशेषण देकर यह समझाया गया है कि जिसमें ये सब बातें हों वही पूर्ण कर्मयोगी है और उसी को शीघ्र ही ब्रह्म की प्राप्ति होती है।
प्रश्न- ‘सर्वभूतात्मभूतात्मा’ इस पद का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- ब्रह्मा से लेकर स्तम्बपर्यन्त सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मरूप परमेश्वर ही जिसका आत्मा यानी अन्तर्यामी है, जो उसी की प्रेरणा के अनुसार सम्पूर्ण कर्म करता है तथा भगवान् को छोड़कर शरीर, मन, बुद्धि और अन्य किसी भी वस्तु में जिसका ममत्व नहीं है, वह ‘सर्वभूतात्मभूतात्मा’ है।
प्रश्न- यहाँ ‘अपि’ का प्रयोग किस हेतु से किया गया है?
उत्तर- सांख्ययोगी अपने को किसी भी कर्म का कर्ता नहीं मानता; उसके मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा सब क्रियाओं के होते रहने पर भी वह यही समझता है कि ‘मैं कुछ भी नहीं करता, गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, मेरा इनसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं हैं’। इसलिये उसका तो कर्म से लिप्त न होना ठीक ही है, परंतु अपने को कर्ता समझने वाला कर्मयोगी भी भगवान् के आज्ञानुसार और भगवान् के लिये सब कर्मों का करता हुआ भी कर्मों में फलेच्छा और आसक्ति न रहने के कारण उनसे नहीं बँधता। यह उसकी विशेषता है। इसी अभिप्राय से ‘अपि’ शब्द का प्रयोग किया गया है।
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