चतुर्थ अध्याय
सम्बन्ध- कोई भी दृष्टान्त परमार्थ विषय को पूर्णरूप से नहीं समझा सकता, उसके एक अंश को ही समझाने के लिये उपयोगी होता है; अतएव पूर्वश्लोक में बतलाये हुए ज्ञान के महत्त्व को अग्नि के दृष्टान्त से पुनः स्पष्ट करते हैं-
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।
ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ।।37।।
क्योंकि हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को भस्ममय कर देता है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है ।।37।।
प्रश्न- इस श्लोक में अग्नि की उपमा देते हुए ज्ञानरूप अग्नि के द्वारा सम्पूर्ण कर्मों का भस्यमय किया जाना बतलाकर क्या बात कही गयी है?
उत्तर- इससे यह बात समझायी गयी है कि जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि समस्त काष्ठादि ईंधन के समुदाय को भस्म रूप बनाकर उसे नष्ट कर देता है, उसी प्रकार तत्त्व ज्ञानरूप अग्नि जितने भी शुभाशुभ कर्म हैं, उन सबको-अर्थात् उनके फलरूप सुख-दुःख भोगों के तथा उनके कारण रूप अविद्या और अहंता-ममता, राग-द्वेष आदि समस्त विकारों के सहित समस्त कर्मों को नष्ट कर देता है। श्रुति में भी कहा है-
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।।[1]
अर्थात् उस परावर परमात्मा का साक्षात्कार हो जाने पर इस ज्ञानी के जड़-चेतन की एकतारूप हृदय ग्रन्थि का भेदन हो जाता है; जड देहादि में जो अज्ञान से आत्माभिमान हो रहा है, उसका तथा समस्त संशयों का नाश हो जाता है; फिर परमात्मा के स्वरूप ज्ञान के विषय में किसी प्रकार का किंचिन्मात्र भी संशय या भ्रम नहीं रहता और समस्त कर्म फल सहित नष्ट हो जाते है। इस अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में ‘ज्ञानाग्नि-दग्धकर्माणम्’ विशेषण से भी यही बात कही गयी है। इस जन्म और जन्मान्तर में किये हुए समस्त कर्म संस्कार रूप से मनुष्य के अन्तःकरण में एकत्रित रहते हैं, उनका नाम ‘संचित’ कर्म है। उनमें से जो वर्तमान जन्म में फल देने के लिये प्रस्तुत हो जाते हैं, उनका नाम ‘प्रारब्ध’ कर्म है और वर्तमान समय में किये जाने वाले कर्मों को ‘क्रियमाण’ कहते हैं। उपर्युक्त तत्त्वज्ञान रूप अग्नि के प्रकट होते ही समस्त पूर्वसंचित संस्कारों का अभाव हो जाता है। मन, बुद्धि और शरीर से आत्मा को असंग समझ लेने के कारण उन मन, इन्द्रिय और शरीरादि के साथ प्रारब्ध भोगों का सम्बन्ध होते भी उन भोगों के कारण उसके अन्तःकरण में हर्ष-शोक आदि विकार नहीं हो सकते। इस कारण वे भी उसके लिये नष्ट हो जाते हैं और क्रियमाण कर्मों में उसका कर्तृत्वाभिमान तथा ममता, आसक्ति और वासना न रहने के कारण उनके संस्कार नहीं बनते; इसलिये वे कर्म वास्तव में कर्म ही नहीं हैं।
इस प्रकार उसके समस्त कर्मों का नाश हो जाता है और जब कर्म ही नष्ट हो जाते हैं, तब उनका फल तो हो ही कैसे सकता है? और बिना संचित संस्कारों के उसमें राग-द्वेष तथा हर्ष-शोक आदि विकारों की वृत्तियाँ भी कैसे हो सकती हैं? अतएव उसके समस्त विकार और समस्त कर्मफल भी कर्मों के साथ ही नष्ट हो जाते हैं।
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