श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
प्रथम अध्याय
उत्तर- वनवास तथा अज्ञातवास के तेरह वर्ष पूरे होने पर पाण्डवों को उनका राज्य लौटा देने की बात निश्चित हो चुकी थी और तब तक वह कौरवों के हाथ में धरोहर के रूप में था, परंतु उसे अन्यायपूर्वक हड़प जाने की नीयत से दुर्योधन इससे सर्वथा इनकार कर गये। दुर्योधन ने पाण्डवों के साथ अब तक और तो अनेकों अन्याय तथा अत्याचार किये ही थे, परंतु इस बार उनका यह अन्याय तो असह्य ही हो गया। दुर्योधन की इसी पापबुद्धि का स्मरण करके अर्जुन उन्हें दुर्बुद्धि बतला रहे हैं। प्रश्न- दुर्योधन का युद्ध में हित चाहने वाले जो ये राजा इस सेना में आये हैं, इन युद्ध करने वालों को मैं देखूँगा, अर्जुन के इस कथन का क्या अभिप्राय है? उत्तर- अर्जुन का इसमें यह भाव प्रतीत होता है कि पापबुद्धि दुर्योधन का अन्याय और अत्याचार सारे जगत् में प्रत्यक्ष प्रकट है, तो भी उसका हित करने की इच्छा से उसकी सहायता करने के लिये ये राजा लोग यहाँ इकट्ठे हुए हैं; इससे मालूम होता है कि इनकी भी बुद्धि दुर्योधन की बुद्धि के समान ही दुष्ट हो गयी है। तभी तो ये सब अन्याय का खुला समर्थन करने के लिये आकर जुटे हैं और अपनी शान दिखाकर उसकी पीठ ठोंक रहे हैं। तथा इस प्रकार उसका हित करने जाकर वास्तव में उसका अहित कर रहे हैं। अपने को बड़ा बलवान् मानकर और युद्ध के लिये उत्सुक होकर खड़े हुए इन सबको मैं जरा देखूँ तो सही कि ये कौन-कौन हैं? और फिर युद्धस्थल में भी देखूँ कि ये कितने बड़े वीर हैं और इन्हें अन्याय तथा अधर्म का पक्ष लेने का मजा चखाऊँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज