श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
उत्तर- वास्तव में कोई विरोध नहीं है। राजस-स्वभाव वालों और रजोगुण की वृद्धि में मरने वालों को मनुष्य योनि की प्राप्ति होती है यह सत्य हैं इससे मनुष्य योनि की रजोगुण-प्रधानता सूचित होती है, परंतु रजोगुण प्रधान मनुष्य योनि में सभी मुनष्य समान गुण वाले नहीं होते। उनमें गुणों के अवान्तर भेद होते ही हैं और उसी के अनुसार जो सत्त्वगुण प्रधान होता है उसका ब्राह्मण वर्ण में, सत्त्वमिश्रित रजःप्रधान का क्षत्रिय वर्ण में, तमोमिश्रित रजः प्रधान का वैश्य वर्ण में, रजोमिश्रित तमः प्रधान का शूद्रवर्ण में और सत्त्व-रज के विकास से रहित केवल तमः प्रधान का उससे भी निम्नकोटि की योनियों में जन्म होता है। प्रश्न- नवें अध्याय के दसवें श्लोक में तो भगवान् ने अपनी प्रकृति को समस्त जगत् की रचने वाली बतलाया है और यहाँ स्वयं अपने को सृष्टि का रचयिता बतलाते हैं- इसमें जो विरोध प्रतीत होता है, उसका क्या समाधान है? उत्तर- इसमें कोई विरोध नहीं है। उस श्लोक में भी केवल प्रकृति को जगत् की रचना करने वाली नहीं बतलाया है, अपितु भगवान् की अध्यक्षता में प्रकृति जगत् की रचना करती है- ऐसा कहा गया है। क्योंकि प्रकृति जड होने के कारण उसमें भगवान् की सहायता के बिना गुणकर्मों का विभाग करने और सृष्टि के रचने का सामर्थ्य ही नहीं है। अतएव गीता में जहाँ प्रकृति को रचने वाली बतलाया है, वहाँ यह समझ लेना चाहिये कि भगवान् के सकाश से उनकी अध्यक्षता में ही प्रकृति जगत् की रचना करती है। और जहाँ भगवान् को सृष्टि का रचियता बतलाया गया है, वहाँ यह समझ लेना चाहिये कि भगवान् स्वयं नहीं रचते, अपनी प्रकृति के द्वारा ही वे रचना करते हैं। प्रश्न- जगत् के रचनादि कर्मों का कर्ता होने पर भी ‘तू मुझे अकर्ता ही जान’ इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इससे भगवान् के कर्मों की दिव्यता का भाव प्रकट किया गया है। अभिप्राय यह है कि भगवान् का किसी भी कर्म में राग-द्वेष या कर्तापन नहीं होता। वे सदा ही उन कर्मों से सर्वथा अतीत हैं, उनके सकाश से उनकी प्रकृति ही समस्त कर्म करती है। इस कारण लोक व्यवहार में भगवान् उन कर्मों के कर्ता माने जाते हैं; वास्तव में भगवान् सर्वथा उदासीन हैं, कर्मों से उनका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है[1]- यही भाव दिखलाने के लिये भगवान् ने यह बात कही है। जब फलासक्ति और कर्तापन से रहित होकर कर्म करने वाले ज्ञानी भी कर्मों के कर्ता नहीं समझे जाते और उन कर्मों के फल से उनका सम्बन्ध नहीं होता, तब फिर भगवान् की तो बात ही क्या है; उनके कर्म तो सर्वथा अलौकिक ही होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 9/9-10
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