श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्थ अध्याय
उत्तर- जो भगवान की शरण ग्रहण कर लेते हैं, सर्वथा उन पर निर्भर हो जाते हैं, सदा उनमें ही सन्तुष्ट रहते हैं, जिनका अपने लिये कुछ भी कर्तव्य नहीं रहता और जो सब कुछ भगवान का समझकर उनका आज्ञा का पालन करने के उद्देश्य से उनकी सेवा के रूप में ही समस्त कर्म करते हैं- ऐसे पुरुषों का वाचक ‘मामुपाश्रिताः’ पद है। इस विशेषण का प्रयोग करके यहाँ भाव दिखलाया गया है कि भगवान् के ज्ञानी भक्त सब प्रकार से उनके शरणापन्न होते हैं, वे सर्वथा उन्हीं पर निर्भर रहते हैं, शरणागति के समस्त भावों का उनमें पूर्ण विकास होता है। प्रश्न- ‘ज्ञानतपसा’ पद का अर्थ आत्मज्ञानरूप तप न मानकर भगवान् के जन्म-कर्मों का ज्ञान मानने का क्या अभिप्राय है और उस ज्ञान तप से पवित्र होकर भगवान् के स्वरूप को प्राप्त हो जाना क्या है? उत्तर- यहाँ सांख्ययोग का प्रसंग नहीं है, भक्ति का प्रकरण है तथा पूर्व श्लोक में भगवान् के जन्म-कर्मों को दिव्य समझने का फल भगवान् की प्राप्ति बतलाया गया है; उसी के प्रमाण में यह श्लोक है। इस कारण यहाँ ‘ज्ञानतपसा’ पद में ज्ञान का अर्थ आत्मज्ञान न मानकर भगवान् के जन्मकर्मों को दिव्य समझ लेना रूप ज्ञान ही माना गया है। इस ज्ञानरूप तप के प्रभाव से मनुष्य का भगवान् में अनन्य प्रेम हो जाता है, उसके समस्त पाप-ताप नष्ट हो जाते हैं, अन्तःकरण में सब प्रकार के दुर्गुणों का सर्वथा अभाव हो जाता है और समस्त कर्म भगवान् के कर्मों की भाँति दिव्य हो जाते हैं, तथा वह कभी भगवान् से अलग नहीं होता, उसको भगवान् सदा ही प्रत्यक्ष रहते हैं- यही उन भक्तों का ज्ञानरूप तप से पवित्र होकर भगवान् के स्वरूप को प्राप्त हो जाना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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