श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
तृतीय अध्याय
सक्ता: कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।
उत्तर- अपने-अपने वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति के अनुसार शास्त्र विहित कर्तव्य-कर्मों का वाचक यहाँ ‘कर्मणि’ पद है; क्योंकि भगवान् अज्ञानियों को उन कर्मों में लगाये रखने का आदेश देते हैं एवं ज्ञानी को भी उन्हीं की भाँति कर्म करने के लिये प्रेरणा करते हैं, अतएव इनमें निषिद्ध कर्म या व्यर्थ कर्म सम्मिलित नहीं हैं। प्रश्न- ‘कर्मणि सक्ताः’ विशेषण के सहित ‘अविद्वांसः’ पद यहाँ किस श्रेणी के अज्ञानियों का वाचक है? उत्तर- उपर्युक्त विशेषण के सहित ‘अविद्वांसः’ पद यहाँ शास्त्रों में, शास्त्र विहित कर्मों में और उनके फल में श्रद्धा, प्रेम और आसक्ति रखने वाले तथा शास्त्र विहित कर्मों का विधिपूर्वक अपने-अपने अधिकार के अनुसार अनुष्ठान करने वाले सकाम कर्मठ मनुष्यों का वाचक है। इनमें कर्म विषयक आसक्ति रहने के कारण ये न तो कल्याण के साधक शुद्ध सात्त्विक कर्मयोगी पुरुषों की श्रेणी में आ सकते हैं और न श्रद्धापूर्वक शास्त्र विहित कर्मों का आचरण करने वाले होने के कारण आसुरी, राक्षसी और मोहनी प्रकृति वाले पापाचारी तामसी ही माने जा सकते हैं। अतएव इन लोगों को उन सत्त्वगुण मिश्रित राजस स्वभाव वाले मनुष्यों की श्रेणी में समझना चाहिये, जिनका वर्णन दूसरे अध्याय में बयालीसवें से चौवालीसवें श्लोक तक ‘अविपश्चितः’ पद से, सातवें अध्याय में बीसवें से तेईसवें श्लोक तक ‘अल्पमेधसाम्’ पद से और नवें अध्याय में बीस, इक्कीस, तेईस और चौबीसवें श्लोकों में ‘अन्यदेवता भक्तः’ पद से किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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