श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- पापों के कारण ही मनुष्यों को दुःख होता है और कर्मयोग के साधन से पापों का नाश होकर अन्तःकरण विशुद्ध हो जाता है तथा शुद्ध अन्तःकरण में ही उपर्युक्त सात्त्विक प्रसन्नता होती है। इसलिये सात्त्विक प्रसन्नता से सारे दुःखों का अभाव बतलाना न्याय संगत ही है।[1] प्रश्न- ‘सर्वदुःखानाम्’ पद किनका वाचक है और उनका अभाव हो जाना क्या है? उत्तर- अनुकूल पदार्थों के वियोग और प्रतिकूल पदार्थों के संयोग से जो आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक नाना प्रकार से दुःख सांसारिक मनुष्यों को प्राप्त होते हैं, उन सबका वाचक यहाँ ‘दुःखानाम्’ पद है। उपर्युक्त साधक को आध्यात्मिक सात्त्विक प्रसन्नता का अनुभव हो जाने के बाद उसे किसी भी वस्तु के संयोग-वियोग से किंचिन्मात्र भी दुःख नहीं होता। वह सदा आनन्द में मग्न रहता है। यही सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाना है। प्रश्न- प्रसन्नचित्त वाले योगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर भली-भाँति परमात्मा में स्थिर हो जाती है- इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया है कि अन्तःकरण के पवित्र हो जाने पर जब साधक को आध्यात्मिक प्रसन्नता प्राप्त हो जाती है, तब उसका मन क्षण भर भी उस सुख और शान्ति का त्याग नहीं कर सकता। इस कारण उसके अन्तःकरण की वृत्तियाँ सब ओर से हट जाती हैं और उसकी बुद्धि शीघ्र ही परमात्मा के स्वरूप में स्थिर हो जाती है। फिर उसके निश्चय में एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा से भिन्न कोई वस्तु नहीं रहती। प्रश्न- अर्जुन का प्रश्न स्थितप्रज्ञ सिद्ध पुरुष के विषय में था। इस श्लोक में साधक का वर्णन है, क्योंकि इसका फल प्रसाद की प्राप्ति के द्वारा शीघ्र ही बुद्धि का स्थिर होना बतलाया गया है। अतएव अर्जुन के चौथे प्रश्न का उत्तर इस श्लोक से कैसे माना जा सकता है? उत्तर- यद्यपि अर्जुन का प्रश्न साधक के सम्बन्ध में नहीं है, परंतु अर्जुन साधक हैं और भगवान् उन्हें सिद्ध बनाना चाहते हैं। अतएव सुगमता के साथ उन्हें समझाने के लिये भगवान् ने पहले साधक की बात कहकर अन्त में इकहत्तरवें श्लोक में उसका सिद्ध में उपसंहार कर दिया है। अर्जुन के प्रश्न का पूरा उत्तर तो उस उपसंहार में ही है, उसकी भूमिका का आरम्भ इन्हीं श्लोकों से हो जाता है। अतएव अर्जुन के चौथे प्रश्न का उत्तर यहीं से आरम्भ होता है, ऐसा ही मानना उचित है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 18। 36-37
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