श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमति न त्यजेत् ।
उत्तर- वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति की अपेक्षा से जिसके लिये जो कर्म बतलाये गये हैं, उसके लिये वे ही सहजकर्म हैं। अतएव इस अध्याय में जिन कर्मों का वर्णन स्वधर्म, स्वकर्म, नियतकर्म, स्वभाव-नियतकर्म और स्वभावज कर्म के नाम से हुआ है, उन्हीं का वाचक यहाँ ‘सहजम्’ विशेषण के सहित ‘कर्म’ पद है। दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म को नहीं त्यागना चाहिये- इस वाक्य से यह भाव दिखलाया गया है कि जो स्वभाविक कर्म श्रेष्ठ गुणों से युक्त हों, उनका त्याग न करना चाहिये- इसमें तो कहना ही क्या है; पर जिसमें साधारणतः हिंसादि दोषों का मिश्रण दीखता हो वे भी शास्त्र-विहित एवं न्यायोचित होने के कारण दोषयुक्त दीखने पर भी वास्तव में दोषयुक्त नहीं हैं। इसलिये उन कर्मों का भी त्याग नहीं करना चाहिये, अर्थात् उनका आचरण करना चाहिये; क्योंकि उनके करने से मनुष्य पाप का भागी नहीं होता बल्कि उलटा उनका त्याग करने से पाप का भागी हो सकता है। प्रश्न- ‘हि’ अव्यय का प्रयोग करके सभी कर्मों को धूएँ से अग्नि की भाँति दोष से युक्त बतलाने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- ‘हि’ पद यहाँ हेतु के अर्थ में है, इसका प्रयोग करके समस्त कर्मों को धूएँ से आग्नि की भाँति दोष से युक्त बतलाने का यहाँ यह अभिप्राय है कि जिस प्रकार धूएँ से अग्नि ओतप्रोत रहती है, धूआँ अग्नि से सर्वथा अलग नहीं हो सकता- उसी प्रकार आरम्भ मात्र दोष से ओत-प्रोत हैं, क्रियामात्र में किसी-न-किसी प्रकार से किसी-न-किसी प्राणी की हिंसा हो ही जाती है, क्योंकि संन्यास-आश्रम में भी शौच, स्नान और भिक्षाटनादि कर्म द्वारा किसी-न-किसी अंश में प्राणियों की हिंसा होती ही है और ब्राह्मण के यज्ञादि कर्मों में भी आरम्भ की बहुलता होने से क्षुद्र प्राणियों की हिंसा होती है। इसलिये किसी भी वर्ण-आश्रम के कर्म साधारण दृष्टि से सर्वथा द्वोषरहित नहीं हैं और कर्म किये बिना कोई रह नहीं सकता[1]; इस कारण स्वधर्म का त्याग कर देने पर भी कुछ-न-कुछ कर्म तो मनुष्य को करना ही पड़ेगा तथा वह जो कुछ करेगा, वही दोषयुक्त होगा। इसीलिये अमुक कर्म नीचा है या दोषयुक्त है- ऐसा समझकर मनुष्य को स्वधर्म का त्याग नहीं करना चाहिये; बल्कि उसमें ममता, आसक्ति और फलेच्छा रूप दोषों का त्याग करके उनका न्याययुक्त आचरण करना चाहिये। ऐसा करने से मनुष्य का अन्तःकरण शुद्ध होकर उसे शीघ्र ही परमात्मप्राप्ति हो जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 3। 5
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