श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
अष्टादश अध्याय
यज्ञदानतप:कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् ।
उत्तर- इस कथन से भगवान् ने शास्त्रविहित कर्मों की अवश्य कर्तव्यता का प्रतिपादन किया है। अभिप्राय यह है कि शास्त्रों में अपने-अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार जिसके लिये जिस कर्म का विधान है-जिसको जिस समय जिस प्रकार यज्ञ करने के लिये, दान देने के लिये और तप करने के लिये कहा गया है- उसे उसका त्याग नहीं करना चाहिये, यानि शास्त्र-आज्ञा की अवहेलना नहीं करनी चाहिये; क्योंकि इस प्रकार के त्याग से किसी प्रकार का लाभ होना तो दूर रहा, उल्टा प्रत्यवाय होता है। इसलिये इन कर्मों का अनुष्ठान मनुष्य को अवश्य करना चाहिये। इसका अनुष्ठान किस भाव से करना चाहिये, यह बात अगले श्लोक में बतलाई गयी है। प्रश्न- ‘मनीषिणाम्’ पद किन मनुष्यों का वाचक है तथा यज्ञ, दान और तप- ये सथी कर्म उनको पवित्र करने वाले हैं, इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- वर्णाश्रम के अनुसार जिसके लिये जो कर्म कर्तव्यरूप् में बतलाये गये हैं, उन शास्त्र विहित कर्मों का शास्त्रविधि के अनुसार अंग-उपांगों सहित निष्कामभाव से भली-भाँति अनुष्ठान करने वाले बुद्धिमान् मुमुक्षु पुरुषों का वाचक यहाँ ‘मनीषिणाम्’ पद है। उसके द्वारा किये जाने वाला यज्ञ, दान और तपरूप सभी कर्म बन्धनकारक नहीं हैं बल्कि उनके अन्तः कारण को पवित्र करने वाले होते हैं; अतएव मनुष्य को निष्काम भाव से यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों का अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये- यह भाव दिखलाने के लिये यहाँ यह बात कही गई है कि यज्ञ, दान और तपरूप कर्म मनीषी पुरुषों को पवित्र करने वाले हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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