श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
सप्तदश अध्याय
तदित्यनभिसंधाय फलं यज्ञतप:क्रिया: ।
उत्तर- ‘तत्’ पद परमेश्वर का नाम है। उसके स्मरण का उद्देश्य समझाने के लिये यहाँ ‘इति’ के सहित उसका प्रयोग किया गया है। अभिप्राय यह है कि कल्याणकामी मनुष्य प्रत्येक क्रिया करते समय भगवान् के ‘तत्’ इस नाम का स्मरण करते हुए, जिस परमेश्वर के समस्त जगत् की उत्पत्ति हुई है, उसी का सब कुछ है और उसी की वस्तुओं से उसकी आज्ञानुसार उसके लिये मेरे द्वारा यज्ञादि क्रिया की जाती है; अतः मैं केवल निमित्तमात्र हूँ’- इस भाव से अहंता-ममता का सर्वथा त्याग कर देते हैं। प्रश्न- मोक्ष को चाहने वाले साधकों द्वारा किये जाने वाले कर्म फल को न चाहकर किये जाते हैं, इस कथन का क्या अभिप्राय है? उत्तर- मोक्षकामी साधकों द्वारा सब कर्म फल को न चाहकर किये जाते हैं- यह कहकर भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि जो विहित कर्म करने वाले साधारण वेदवादी हैं, वे फल की इच्छा या अहंता-ममता का त्याग नहीं करते; किन्तु जो कल्याणकामी मनुष्य हैं, जिनको परमेश्वर की प्राप्ति के सिवा अन्य किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है- वे समस्त कर्म अहंता, ममता, आसक्ति और फल-कामना का सर्वथा त्याग करके केवल परमेश्वर के ही लिये उनके आज्ञानुसार किया करते हैं। इससे भगवान् ने फल का मना के त्याग का महत्त्व दिखलाया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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